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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (४) आचार्य वसुनन्दि . वे जिनेन्द्र देव सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञान के द्वारा समस्त तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले हैं। यहाँ तत्त्व शब्द भाव सामान्य का वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है। यहाँ 'तत' पद से कोई भी पदार्थ लिया जा सकता है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। अर्थ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है ....... अर्यते निश्चीयते इत्यर्थः - जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है - 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः'। अथवा भाव द्वारा भाव . वाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव- भाव वाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी स्थिति में इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थ: तत्त्वार्थ:'। इसी तत्त्वार्थ का. श्रद्धान करना तत्त्वार्थ श्रद्धान कहलाता है, इसे ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसे तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले तथा भव्य जीवों के लिए श्रावक और मुनि धर्म का उपदेश देने वाले उन जिनेन्द्र को नमस्कार करके मैं श्रावक धर्म अर्थात् श्रावकाचार का प्ररूपण. करता हूँ।।१-२।। उपदेश सुनने की प्रेरणा विउल-गिरि - पव्वए णं इंदभूइणा सेणियस्स जंह सिटुं। तह गुरु पडिवाडीए भणिज्जमाणं णिसामेह।।३।। अन्वयार्थ– जिस प्रकार, (विउल-गिरि-पव्वए णं) विपुल गिरि पर्वत पर, (भगवान् महावीर के समवशरण में) (इंद्रभूइणा) इन्द्रभूति गौतम ने, (सेणियस्स) श्रेणिक राजा को, (जह सिटुं) जिस प्रकार (श्रावक) धर्म का उपदेश दिया है, (तह) उसी प्रकार, (गुरुपरिवाडीए) गुरु-परिपाटी (परम्परा) से प्राप्त, (भणिज्जमाणं) कहे जाने योग्य धर्म को (हे भव्य! तुम) (णिसामेह) सुनो।।३।। ___अर्थ- विपुलाचल पर्वत पर भगवान् महावीर के समवसरण में इन्द्रभूति नामक गौतम गणधर ने बिम्बसार नामक श्रेणिक महाराज को जिस प्रकार से श्रावक धर्म का उपदेश दिया था, उसी प्रकार गुरु परम्परा से प्राप्त वक्ष्यमाण श्रावकधर्म को, हे भव्य जीवों, तुम लोग सुनों। व्याख्या- भव्य जीवों के लिये उपदेश सुनने की प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री ने यहाँ पर विपुलाचल पर्वत पर लगे हुए भगवान् महावीर के समवशरण का दृश्य दिखाते हुए कहा है- कि हे भव्य जीवो! जिस प्रकार भगवान् महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम ने तत्कालीन मगध के सम्राट श्रेणिक (बिम्बिसार) को श्रावक धर्म का उपदेश दिया है उसी प्रकार गुरुपरिपाटी से प्राप्त श्रावक धर्म का व्याख्यान मैं तुम सबके १. झ. द. इरि.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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