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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२०) एवं पिच्छंता वि हु परदव्वं चोरियाई गेहंति । ण मुणंति किं पि सहियं पेच्छह हो मोह' माहप्पं । । ११० ।। आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ — (एवं पिच्छंता वि हु) इस प्रकार (दुःख) देखते हुए भी, (लोग), (चोरियाई) चोरी से, (परदव्वं गेण्हंति) परद्रव्य ग्रहण करते हैं, (सहियं) स्वहित, (किं पिं) कुछ भी, (ण मुणंति) नहीं जानते हैं, (हो) अहो! (मोह माहप्पं) मोह के माहात्म्य को, (पेच्छह) देखो । भावार्थ — पूर्वकथित भयङ्कर दुःखों को देखते हुए भी और भोगते हुए भी मूढ़ मनुष्य चोरी से दूसरों के द्रव्य का अपहरण करते हैं। वह यह नहीं समझते कि चोरी करने से आत्मा का, स्वयं का कितना अहित हो रहा है; देखो तो मोह की महिमा बड़ी विचित्र है।। ११० ।। पर लोए वि य चोरो चउगड़- संसार- सायर निमण्णो । पावड़ दुक्खमणंतं तेयं तेयं परिवज्जए तम्हा । । १११ । । अन्वयार्थ — (परलोए वि य) और परलोक में भी, (चोरो) चोर, (चउगइ संसार सायरो निमण्णो) चतुर्गति रूप संसार में निमग्न होता हुआ, '(अनंत दुक्ख) अनन्त दुःखों को, (पावइ) पाता है, (तम्हा) इसलिए, (तेयं) चोरी का, (परिवज्जए) त्याग करना चाहिए। अर्थ — इस लोक में तो चोर दुःख पाता ही है परलोक में भी वह दु:खी ही रहता है। वह हमेशा चतुर्गति रूप संसार में घूमता रहता है, डूबता - उभरता रहता है, गोते खाता रहता है, किंचित भी सुख नहीं पाता है अत: चोरी का नियम से त्याग करना चाहिए। १. व्याख्या आचार्यों ने धन को ग्यारहवां प्राण कहा है। चोरी करने वाले पुरुष की सारा जगत् निन्दा करता है। धन मनुष्यों का बाह्य प्राण है अतः जो किसी का धन हरण करता है, वह उसके प्राण हरण करता है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं। ― अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।। १०३ ।। पु०सि० अर्थात् जो पुरुष जिस जीव के पदार्थों को या धन को हरण करता है, वह पुरुष उस जीव के प्राणों को हरण करता है, क्योंकि बाह्य जगत् में जो ये धनादिक पदार्थ प्रसिद्ध हैं, वे सब ही पुरुषों के बाह्य प्राण है; इससे चोरी भी साक्षात् स्व-पर की हिंसा ब. मोहस्स. .
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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