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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२१)
आचार्य वसुनन्दि) है। उपरोक्त सम्पूर्ण तथ्यों को जानकर भव्य जीवों को चोरी का, धरोहर छिपा लेने का, ज्यादा धन लेकर कम वापिस देने आदि का त्याग करना चाहिए।।१११।।
परस्त्रीगमन-दोष-वर्णन दलूण परकलत्तं णिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं।
ण य किं पि तत्थ पावइ पावं एमेव अज्जेइ ।।११२।।
अन्वयार्थ- (जो णिब्बुद्धी) जो निर्बुद्धि पुरुष, (परकलत्तं) परस्त्री को, (दट्ठण) देखकर, (अहिलासं) अभिलाषा, (करइ) करता है, (तत्थ किं पि ण य पावइ) वह कुछ भी नहीं पाता है, (एमेव) केवल पाप, (अज्जेइ) अर्जित करता है।
भावार्थ- जो मूढ़ मनुष्य परस्त्री को देखकर उसे भोगने की अभिलाषा इच्छा करता है, वह मूर्ख पाता तो कुछ नहीं अपितु मात्र पाप का ही अर्जन करता है। उसके दुर्भाव केवल पाप बंध कराते हैं।।११२।।।
हिस्सइ रुयइ गायइ णिययसिरं हणइ महियले पडइ। परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पि जंपेइ।।११३।।
अन्वयार्थ– (णिस्सइ) निःश्वास छोड़ता है, (रुयइ) रोता है, (गायइ) गाता है, (णिययसिरं हणइ) अपना सिर फोड़ता है, (महियले पडेइ) पृथ्वी तल पर गिरता है (और), (परमहिलमलभमाणो) पर-स्त्री को प्राप्त न करता हुआ, (असप्पलावं पि जंपेइ) असत्प्रलाप भी बोलता है। - भावार्थ- परस्त्री लंपटी पुरुष जब पर-महिला अर्थात् इच्छित परस्त्री को नहीं पाता तब वह दीर्घ निःश्वास छोड़ने लगता है, रोता है, गाता है, अपने शरीर, सिर, छाती आदि को पीटता है, भूमि में गिर पड़ता है तथा झूठ वचन बोलता है, न बोलने योग्य वचन बोलता है अथवा अकेला बैठा-बैठा ही बोलता रहता है, कुल मिलाकर उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है।।११३।।
चिंतेइ मम किमिच्छइ ण वेइ सा केण वा उवाएण। अण्णेमि कहमि कस्स वि ण वेत्ति चिंताउरो सदद।।११४।।
अन्वयार्थ– (चिंतेइ) परस्त्री लंपटी सोचता है, (किं मम सा इच्छइ) क्या वह मेरी इच्छा रखती है, (ण वेइ) अथवा नहीं?, (केण वा उवाएण) अथवा किस उपाय से लाऊँ, (अण्णेमि कहमि कस्स वि ण वा इति) अन्य किसी से कहूँ अथवा नहीं इस प्रकार से, (सददं) हमेशा, (चिंताउरो) चिंतातुर रहता है।