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विसुनन्दि-श्रावकाचार (१२२)
आचार्य क्सुनन्दि भावार्थ- परस्त्री लम्पटी सोचता है कि वह स्त्री मुझे चाहती है अथवा नहीं अथवा किस उपाय से उसे अपने पर आसक्त करू अथवा उसे कैसे लाऊँ? दूसरे से कहूँ अथवा नहीं? अगर दूसरे से कहा तो मेरी बदनामी होगी और नहीं कहा तो देखे जाने पर अपयश के साथ-साथ दण्ड भी भोगना पड़ सकता है? ऐसी स्थिति में मैं क्या करूं? इस प्रकार से सोचता हुआ वह हमेशा आर्त ध्यान में लगा रहता है, चिन्तातुर रहता है।।११४।।
ण य कत्थवि कुणइ रई मिटुं पि य भोयणं ण भुंजेइ। . णिई पि अलहमाणो अच्छइ विरहेण संतत्तो।।११५।।
अन्वयार्थ- (य) और (वह), (कत्थ वि रई) कहीं भी रति, (ण कुणइ) नहीं करता है, (मिटुं पि भोपणं ण भुंजेइ) मीठा भी भोजन नहीं खाता है, (य) और, (णि पि अलहमाणो) निद्रा नहीं लेता हुआ, (विरहेण) स्त्री विरह से, (संतत्तो अच्छइ) सन्तप्त बना रहता है। ____ भावार्थ- वह परस्त्री लम्पटी मनुष्य कही भी रति नहीं करता है अर्थात् किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु से स्नेह नहीं करता, उसे सुरुचिकर मीठा स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता। अत: वह भोजन भी नहीं करता है। स्त्री में मन लगा होने के कारण उसे नींद भी नहीं आती है अत: वह जागता ही रहता है। स्त्री विरह से वह हमेशा सन्तप्त अर्थात् पागल-सा बना रहता है।।११५।।
लज्जा-कुल-मज्जायं छंडिऊण मज्जाइभोयणं किच्चा। परमहिलाणं चित्तं अणुमंतो पत्थणं कुणइ।।११६।।
अन्वयार्थ- (लज्जा कुल-मज्जाय) लज्जा (और) कुल मर्यादा को, (छंडिऊण) छोड़ कर, (मज्जाइभोयणं किच्चा) मद्यादि का भोजन करके, (परमहिलाणं चित्तं) पर स्त्रियों के चित्त को, (अणुमंतो) नहीं जानता हुआ (उनसे), (पत्थणं कुणइ) प्रार्थना करता है।
____भावार्थ- परस्त्री लम्पटी अपनी लज्जा और कुल मर्यादा को छोड़ कर मद्य, मांस, मधु आदि अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन करके पर स्त्रियों के चित्त को नहीं जानता हुआ उनसे उनके साथ रमण करने की प्रार्थना करता है।।११६।। .
णेच्छंति जइ वि ताओ उवयारसयाणि कुणइ सो तह वि। णिन्मच्छिज्जंतो पुण अप्पाणं झूरइ विलक्खो।।११७।।
१. ब. अलभमानो.
२.
इ. कुलकम्म.