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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१२३) आचार्य वसुनन्दि - अन्वयार्थ- (जइ वि) यदि फिर भी, (ताओ) उसे (वे स्त्रियां), (णेच्छंति) नहीं चाहती हैं, (तह वि) तो भी, (सो) वह, (उवयार-सयाणि) सैकड़ों खुशामदें, (कुणाइ) करता हैं, (णिन्मच्छिज्जंतो) भर्त्सना किया जाता हुआ भी, (पुण) पुन:, (विलक्खो ) विलक्ष होकर, (अप्पाणं झूरइ) अपने आपको झूरता रहता है। भावार्थ- बार-बार प्रार्थना किये जाने पर भी जब वे स्त्रियाँ उसे नहीं चाहती हैं, तब वह उनकी सैकड़ों खुशामदें करता है, सरस और चापलूसी पूर्ण व्यवहार करता है फिर भी उनके द्वारा भर्त्सना किया जाता हुआ वह विलक्ष अर्थात् लक्ष्य भ्रष्ट होकर अपने आपको झूरता है अर्थात् उसके एक भिन्न प्रकार की ही स्थिति हो जाती है। जितना कष्ट घोर अपमान होने पर होता है, उससे ज्यादा कष्ट उसे परस्त्रियों के द्वारा अपमानित होने पर होते हैं। । ११७।। अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बलं धरेऊणं। किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ।। ११८।। अन्वयार्थ- (अह) अथवा, (अणिच्छमाणं) नहीं चाहती हुई, (परमहिलं) परस्त्री को, (बलं घरेऊणं) जबर्दस्ती पकड़कर, (भुंजइ) भोगता है, (तत्थ किं) वहाँ क्या, (सुक्खं हवइ) होता है?, (पच्चेल्लिउ) प्रत्युत, (दुक्खं पावए) दुःख को ही पाता है। . . ____भावार्थ- कदाचित् वह परस्त्री लम्पटी नहीं चाहने वाली किसी पर-महिला को जबर्दस्ती पकड़कर भोगता है, तो वैसी दशा में उसमें क्या सुख पाता है? अर्थात् कुछ भी सुख नहीं पाता प्रत्युत दुःखों को ही प्राप्त करता है।।११८।। अह कावि पाव बहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं। - सयमेव पच्छियाओ' उवरोहवसेण अप्पाणं।।११९।। - अन्वयार्थ- (अह) अथवा, (कावि) कोई, (पांव बहुला) पापिनी, (असई) दुराचारिणी, (णियसील) अपने शील का, (णिण्णासिऊण) नाश करके, (उवरोह-वसेण) उपरोध के वश से, (सयमेव) स्वयं ही, (अप्पाणं) अपने आपको, (पच्छियाओ) उपस्थित कर देवे। विशेषार्थ- कदाचित् कोई पापिनी, दुराचारिणी स्त्री अपने शील का नाश करके किसी के बार-बार कहने पर उसके पास स्वयं ही जाती है और अपने आपको उसके सामने उपस्थित भी कर देती है।।११९।। १. झ. सयमेवं. २. ध. प्रस्थिता.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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