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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१२४) आचार्य वसुनन्दि जइ देइ तह वि तत्थ सुण्णहर - खंडदेउलयमज्झम्मि' । सच्चित्ते भयभीओर सोक्खं किं तत्थ पाउणए । । १२० । । अन्वयार्थ — (जइ देइ) (और) सौंप भी देती है, (तह वि) तो भी, (तत्य) उस, (सुण्णहर) शून्य पर, (खंडदेउलयमज्झम्मि) खण्डित देवालय के मध्य, (सच्चित्ते) अपने मन में, (भयभीओ) भयभीत होने से, (तत्थ) वहां, (किं सोक्खं) क्या सुख, (पाउणए) पा सकता है ? भावार्थ— और वह दुराचारिणी स्त्री उसे अपने आपको सौंप भी देती है, तो भी उस शून्यघर या खण्डित देवालय अर्थात् देवकुल के मध्य (भीतर) उस स्त्री के साथ रमण करता हुआ वह अपने चित्त में बहुत ही भयभीत रहता है। उसे भय रहता है कि उसे कोई परिजन, पुरजन या अन्य कोई परस्त्री सेवन करते हुए देख लेगा तो कठोर दण्ड एवं घोर अपयश का पात्र बनना पड़ेगा; इस प्रकार भयभीत होते हुए भोग करने पर क्या वह मूढ़ सुख पा सकता है ? अर्थात् नहीं पा सकता है, क्योंकि जहाँ भय होता है वहाँ सुख रंचमात्र भी नहीं होता । हाँ! व्याकुलता जनित दुःख अवश्य ही होता है ।। १२० ।। सोऊण किं पि सद्दं सहसा परिवेवमाण सव्वंगो । ल्हुक्कइ पलाइ पखलइ चउद्दिसं णियइ भयभीओ । । १२१ । । अन्वयार्थ - (किं पि सद्दं) कुछ भी शब्द, (सोऊण) सुनकर (सहसा) सहसा(सव्वंगो परिवेवमाण) सर्वाङ्ग से कांपता हुआ, (ल्हुक्कड़) लुकता है, (पलाइ) भागता है, (पखलइ) गिरता है (और), (भयभीओ) भयभीत होकर, (चउद्दिसं) चारों दिशाओं को, (णियइ) देखता है। भावार्थ — उस एकान्त स्थान में भोग करता हुआ परस्त्री सेवी किसी भी प्रकार का किञ्चित भी शब्द सुनकर अचानक थर-थर कांपने लगता है, कोई देख न ले इसलिए छिपता है, भागता है, भागते हुए गिरता है तो फिर उठ कर भागता है और गिरता है। इस प्रकार भयभीत होता हुआ वह यत्र-तत्र चारों दिशाओं एवं आकाश अथवा पृथ्वी को देखता है। उसकी स्थिति अजीव (अकथनीय) प्रकार की हो जाती है।। १२१ ।। जड़ पुण केण वि दीसइ णिज्जइ तो बंधिऊण णिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं । । १२२ । । १. झ. मज्झयारम्भि. झ०म० भयभीदो. •
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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