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वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसनन्दि) निर्जरा तत्त्व का लक्षण एवं भेद । जह रूद्धम्मि पवेसे सुस्सइ सरपाणियं रविकरहिं। तह आसवे णिरुद्ध तवसा कम्मं मुणेयव्यं ।।४३।। सविवागा अविवाणा दुविहा पुण णिज्जरा मुणेयव्या। सव्वेसिं जीवाणं पढमा विदिया तवस्सीणं।।४४।।*
(युगल) अन्वयार्थ- (जह रुद्धम्मि पवेसे) जिस प्रकार जल का प्रवेश रुक जाने पर, (सरपाणिय) सरोवर का पानी, (रविकरहिं) सूर्य किरणों के द्वारा, (सुस्सइ) सूख जाता है, (तह) उसी प्रकार, (आसवेणिरुद्ध) आश्रव के रुक जाने पर, (तवसा कम्म) तप से कर्म, (सूख जाते हैं), (मुणेयव्य) जानना चाहिये। (पुण) पुनः, (सविवागा अविवागा) सविपाक (और) अविपाक के भेद से, (णिज्जरा) निर्जरा, (दुविहा) दो प्रकार की, (मुणेयव्या) जानना चाहिये, (सव्वेसिं जीवाणं) सभी जीवों को, (पढमा) प्रथम, (तवस्सीणं) तपस्वियों को, (विदिया) दूसरी (निर्जरा होती है)।।४३-४४।।
अर्थ-जिस प्रकार जल का प्रवेश रुक जाने पर सरोवरका पानी सूर्य किरणों के द्वारा सूख जाता है, उसी प्रकार आश्रव के रुक जाने पर तप से कर्म सूख जाते हैं। सविपाक और अविपान के भेद से वह निर्जरा दो प्रकार की जानना चाहिए। सभी जीवों को प्रथम और तपस्वियों को दूसरी निर्जरा होती है। .. व्याख्या- निर्जरा का अर्थ है जर्जरित कर देना या झाड़ देना। बद्ध कर्मों को नष्ट कर देना या पृथक् कर देना निर्जरा तत्त्व है। निर्जरा दो प्रकार की होती है - १. औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा और २. अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा।
तप आदि के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल भोगे ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक क्रम से प्रति समय कर्मों का फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण होती है अर्थात् जिस प्रकार कर्मों का बंध प्रतिक्षण होता है, उसी प्रकार निर्जरा भी होती है। इसमें पुराने कर्मों के स्थान पर नवीन कर्म बंधते जाते हैं। गुप्ति समिति और तप रूपी अग्नि के बल से कर्मों को फल देने के पहले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा है।
यह गलत मान्यता है कि सम्पूर्ण कर्मों को भोगे बिना उन्हें नष्ट नहीं किया जा १. सविपाकाविपाकाथ निर्जरास्याद् द्विधादिमा।
संसारे सर्वजीवनानां द्वितीया सुतपस्विनाम्।। १९गुणभू. श्रा. । *. यह दोनों गाथायें कई पुरानी प्रतियों में क्रमश: ४४-४३ संख्या पर हैं।