________________
विसुनन्दि-श्रावकाचार (५६)
आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ - (सम्मत्तेहिं) सम्यग्दर्शन के द्वारा, (वएहि) व्रतों के द्वारा, (य) और, (कोहाइकसायणिग्गह गुणेहि) क्रोधादि कषायों के निग्रहरूप गुणों के द्वारा, (तहा) तथा (जोगणिरोहेण) योगनिरोध से, (कम्मासवसंवरो होइ) कर्मों का आश्रव रुकता है अर्थात् संवर होता है।।४२।।
अर्थ- सम्यग्दर्शन के द्वारा, व्रतों के द्वारा और क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप कषायों, नौ नो कषायों के निग्रह रूप, रोकने रूप, गुणों के द्वारा तथा मन-वचन-काय इन योगों के निरोध से कर्मों का आश्रव रुकता है और संवर होता है।
व्याख्या-जिस प्रकार नाव के छेद से पानी आना बन्द करने के लिए विभिन्न उपाय करकेउसे रोकते हैं, उसी प्रकार कर्मास्रव भी रोकना चाहिये। कर्मों का आत्मा में आना रुक जाना ही संवर है। ..
सभी श्रावकों एवं साधओं को सम्भव नहीं कि वे पूर्णरूपेण संवर कर सकें अंतएव विवेकपूर्वक शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आहार आदि का ग्रहण करना चाहिये। सम्पूर्ण प्रवृत्तियों पर सम्यक् विवेक का नियन्त्रपा रहना भी संवर के अन्तर्गत माना जाता है।
सम्यग्दर्शन का वर्णन तो चल ही रहा है, व्रतों एवं कषायों का कथन भी यथास्थान आयेगा फिर भी यहां संवर के कुछ कारण कहते हैं -
(१) गुप्ति- अकुशल प्रवृत्तियों से मन, वचन एवं काय की रक्षा।
(२) समिति- चलने बोलने, आहार करने, आदान-निक्षेपण एवं मल-मूत्र विसर्जन सम्बन्धी सम्यक् प्रवृत्ति।
(३) धर्म- क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्मचर्य आदि आत्मस्वरूप परिणति।
(४) अनुप्रेक्षा- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ, एवं धर्म आदि रूप आत्म-चिन्तन।
(५) परीषह जय- स्वेच्छया क्षुधा, तृषा आदि की वेदना का सहना। (६) चारित्र- समतां भाव की आराधना एवं उसके कारणभूत धर्मों का पालन।
वस्तुत: कर्मों का आना रुक जाना ही संवर है, जब तक जीवन में संवर को स्थान नहीं मिलेगा तब तक कर्मों से मुक्ति सम्भव नहीं है।।४२।।