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सभी सौर्यमण्डल के सदस्य हैं। सौरमण्डल आकाश-गगन का अंश हैं आकाश-गगन ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित है । भूकम्प, ज्वारभाटा आदि जैसे प्रकृति के प्रकोप भी सौरमण्डल कारण होते हैं।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी ग्रहों से प्रभावित होती है और ग्रह पृथ्वी से प्रभावित होते हैं । प्राकृतिक और कृत्रिम गैसों, विस्फोटों के विकरण से ग्रहों पर हुए प्रभाव का अनुभव सभी ने किया ही है। मिश्र, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रान्स आदि देशों में सौरमण्डल पर हुए शोधप्रबन्धों से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि पहाड़ों पर अधिक बर्फ जमना, वर्षा आना, सूखा पड़ना, भूमिस्खलन होना, ज्वार-भाटा आना आदि सब कुछ सौरमण्डल के प्रभाव से होता है।
जैन पम्परा में उत्सर्पिणी और अपसर्पिणी का जो विवरण मिलता है वह वस्तुत: सौरमण्डल की गति-स्थिति से बहुत जुड़ा हुआ है। पुराणों में भी इसी प्रकार का वर्णन संवर्त - विवर्त आदि रूप में मिलता है । यह सब पर्यावरण का ही भाग है। पर्यावरण की सुरक्षा ही हमारे अस्तित्व की सुरक्षा है। इसी अस्तित्व की सुरक्षा के लिए धर्म का जन्म हुआ है। जैन धर्म प्रकृतिवादी है और उसने प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए आत्मतुला सिद्धान्त को प्रस्थापित कर अहिंसा को नया आयाम दिया है। अणु-परमाणु बम की होड़ में आज सारा विश्व तृतीय विश्वयुद्ध के कगार पर पहुंच गया है। उसका अधिकांश धन सुरक्षा पर खर्च हो रहा है। ऐसी स्थिति में महावीर का यह वाक्य स्मरणीय है — “ णत्थि असत्थं परेण परं" अशस्त्र में कोई परम्परा नहीं प्रतिक्रिया नहीं, महाविनाश से बचने का उपाय अहिंसा का पालनकर प्रतिक्रिया से बचना है। जैनाचार्यों का यही चिन्तन रहा है ।
पर्यावरण को सुरक्षित रखकर जीवन को सुखी और निरामयी बनाने के लिए जैन तीर्थङ्करों और उनके अनुयायी आचार्यों ने जीवन को धर्म और अध्यात्म से जोड़ दिया है। अहिंसा और अपरिग्रह के आधार पर बारह व्रतों का परिपालन और व्यसन मुक्त जीवन पद्धति का अंगीकरण कराकर सर्व साधारण जनता को पर्यावरण सुरक्षित रखने का जो पाठ दिया है वह वे मिसाल है। धर्म को दया और संयमादि जैसे मानवीय गुणों के साथ जोड़कर अन्तश्चेतना को झंकृत कर दिया है। प्रकृति को राष्ट्रीय सम्पत्ति मानकर उसे सुरक्षित रखने का विशेष आह्वान जैनाचार्यों की देन है। अंग, उपांग, टीकायें, चूर्णियां, आध्यात्मिक और साहित्यिक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने प्रारम्भ से ही जबर्दस्त आन्दोलन छेड़ दिया था और कथाओं के माध्यम से भी यह स्पष्ट कर दिया था कि जीवन में जबतक अहिंसा और अपरिग्रह का परिपालन नहीं होगा, व्यक्ति और समाज सुखी नहीं रह सकता। इसी दृष्टि से उन्होंने श्रावकाचार का निर्माण कर एक नयी दिशा दृष्टि दी थी।