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________________ (२९) · जीवन का हर पक्ष काव्य का परिसर है और उसकी हर घड़कन आगम का प्रतिबिम्बन है। जिस संस्कृति ने जीवन को जिस रूप में समझा है उसने अपने आगम में उसे वैसा ही प्रतिरूपित किया है। जैन आगम श्रमण धारा का परिचायक है। इसलिए उसके आगम में उसी रूप में जीवन को समझने के सूत्र गुम्फित हैं। इन्हीं सूत्रों ने जीवन दर्शन को समझने और सामाजिक क्षेत्र को संतुलित बनाये रखने का अमोघ कार्य किया है। ११. वर्तमान समस्या और जैनधर्म आज की सामाजिक सन्तुलन समस्या व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो गई है। उसने समाज और राष्ट्र की सीमा को लांघकर अन्तराष्ट्रीय सीमा में प्रवेश कर लिया है। राग-द्वेषादिक विकारों से ग्रस्त होकर व्यक्ति और राष्ट्र पारस्परिक संघर्ष कर रहे हैं और विनाश के कगार पर खड़े हो गये हैं। यह संघर्ष सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में घर कर गया है। इसलिए सभी धार्मिकों का ध्यान इस ओर वरवश खिंच गया है और उन्होंने अपने-अपने आगमों में से अपने-अपने ढंग से सामाजिक सन्तुलन के सिद्धान्त, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आचरण-संहिता का निर्माण, कार्यान्वयन का तरीका, आर्थिक संसाधनों के उपयोग में सामाजिक दूरदृष्टि, आध्यात्मिक चेतना का जागरण आदि जैसे सिद्धान्तों को प्रकाशित करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है। .. . . धर्म की समन्वित परिभाषाओं में जैनधर्म अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक खरा उतरा है। सामाजिक सन्तुलन का सम्बन्ध मानवता और अहिंसा के परिपालन से रहा है जो जैनधर्म की अनुपम विशेषता है इसलिए हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म मानवता का पर्यायार्थक है, प्रकृति का गहरा उपासक है और अहिंसा का सूक्ष्मदर्शी है। इसलिए यह राष्ट्रधर्म है, व्यक्ति और समष्टि का धर्म है। विधि-निषेध के माध्यम से जैनधर्म सन्तुलन बनाये रखने की महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्माण करता है। भौतिकवादी संसाधनों से दूर रहकर, आकांक्षाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को सिकोड़कर वह ऐसा सीधा-सादा निरपेक्ष पथ देता है जिससे किसी भी प्रकार का पर्यावरण दूषित नहीं होता। अहिंसा-साधना के बल पर सभी जीवों की रक्षा स्वभावत: होती रहती है और पारस्परिक सहयोग, सद्भाव, समन्वय और सन्तोष से प्रतिक्रिया हीन जीवन बिताने का पथ प्रशस्त हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन में श्रावकाचार की और धर्म की यही भूमिका है। जैनधर्म का समूचा साहित्य इसका प्रमाण है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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