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________________ (३०) २. श्रावकाचार और सामाजिक सन्तुलन पिछले अध्याय में हमने यह देखा कि जैनधर्म प्राणिमात्र के प्रति गहन संरक्षण का भाव रखता है। वह किसी भी कीमत पर किसी की भी हिंसा को प्रश्रय नहीं देता बल्कि यह उपदेश देता है कि कोई किसी को दुःख न पहुँचाये, यहाँ तक कि पेड़-पौधे भी न काटे जायें। जैनधर्म की यही मानवता है और इसीलिए उसे हम मानवधर्म कहां.. सकते हैं। २.१. श्रावकाचार : एक जीवन पद्धति मानवधर्म की प्रारम्भिक पाठशाला है घर । सामाजिक सन्तुलन बनाये रखने का विधान गृहस्थावस्था से ही शुरु होता है। जैनाचार्यों ने इस अवस्था को सागार, उपासक, श्रावक आदि नामों से अभिधानित किया है। इन नामों में "श्रावक" शब्द का प्रयोग अधिक लोकप्रिय हुआ है। पंचास्तिकाय (गाथा १) में श्रावक शब्द का ही प्रयोग हुआ है अतः हम यहाँ श्रावकाचार का वर्णन विशेषरूप से करेंगे समाज के संदर्भ में। समाज बहुसंदर्भित शब्द है, जीवन के हर पहलू से वह जुड़ा हुआ है। अतः श्रावकाचार को भी विविध पहलुओं से जोड़ना पड़ेगा । यहाँ हमारा यह प्रयत्न रहेगा कि हम समाज की दृष्टि से उनकी आचारव्यवस्था को समझें और देखें कि श्रावक तथा मुनि किस प्रकार से आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र को विशुद्धबनाने का प्रयत्न करता है जैनाचार वस्तुत: एक जीवन पद्धति है जो पूर्ण विशुद्धता पर बल देती है। गेही, सामाजिक विषाक्तता को देखते हुए आज यह आवश्यक हो गया है कि व्यक्ति के चिन्तन में मोड़ लाया जाये और सामाजिकता के प्रति जाग्रति पैदाकर धार्मिक प्रदूषण को समाप्त किया जाये। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि व्यक्ति को इसकी आवश्यकता की अनुभूति हो जाये कि उसे समाज में सुधार लाना जरूरी है। इसके लिए उसमें रुचि पैदा करनी होगी । जैनागम में रुचि के दस भेद मिलते हैं - निसर्ग रुचि, उपदेश रुचि, विस्तार रुचि, क्रिया रुचि, संक्षेप रुचि, धर्म रुचि आदि। धर्म रुचि पैदाकर दायित्व बोध करा देना समाज में नया मोड़ ला देता है । इसलिए इस परिवर्तन में हम धर्म और अध्यात्म. के माध्यम से व्यक्ति और समाज को विशुद्ध बनाये रखने का जैनाचार्यों का विधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। यह विधान अहिंसा और अपरिग्रह पर आधारित है। धर्म की सारी परिभाषायें इन्हीं पर केन्द्रित हो जाती हैं।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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