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________________ (३१) २. जैनाचार समाज का मुख्य संरक्षक जैनाचार समाज का मुख्य संरक्षक है। जैनाचार्यों ने व्यक्ति को प्रकृतिस्थ बनाने के लिए ऐसी जीवन पद्धति दी है जो उसे सुन्दर आध्यात्मिक भाव भूमि तैयार कर देती है। यह भावभूमि है अहिंसा और अपरिग्रह की जिसपर चलकर कोई भी व्यक्ति दूसरे को न कष्ट दे सकता है और न अनैतिक मार्ग पर चल सकता है। सामाजिक पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में ये दो ही अंग विशेष साधक माने जाते हैं। यहाँ हमने इन अंगों को पारम्परिक आधार पर श्रावकाचार के रूप में विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जायेगा कि जैनधर्म की दृष्टि से समूचे समाज को किस प्रकार संयमित रखा जा सकता है। . जैन साधना के क्षेत्र में सम्यक् आचार निर्वाण की प्राप्ति के लिये एक विशुद्ध साधन माना गया है। इसका वर्णन संवर और निर्जरा के अन्तर्गत आता है कर्मों की निर्जरा करने और आत्मा को विशद्धावस्था में लाने के लिए साधक क्रमश: श्रावक और मुनि आचार का परिपालन करता है और आध्यात्मिक विकास की सीढियाँ चढ़ता चला जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक यह है कि उसका सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की सुदृढ़ भित्ति पर आधारित हो। साधना की इस परम और चरम दशा में पहुँचने के लिए साधक को क्रमश: श्रावक और मुनि आचार की साधना अपेक्षित हो जाती है। . ३. श्रावकाचार साहित्य . जैन साहित्य में आचारसंहिता पर पृथक् रूप से आचार्यों ने संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश में अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया है। श्रावकाचार के क्षेत्र में उपासकदशांग, श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र आदि कुछ आगम ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं जिनमें श्रावकों के आचार की रूपरेखा मिलती है आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्यों का जो साहित्य इस विषय पर प्राप्त होता है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है भाषा १. कुन्दकुन्द(लगभग प्रथम शती ई.) अघृपाहुड विशेषतः चरित्र पाहुड में प्राप्त मात्र छह गाथायें (२९५ __-३०१) तथा रयणसार प्राकृत २. स्वामी कार्तिकेय कट्टिगेयाणुवेक्खा ___(ल. द्वितीय शती ई०) (धर्मभावना के अन्तर्गत) . प्राकृत ३. उपासगदासाओ (ल. द्वितीय शती) प्राकृत __४. उपास्वाति (ल. चतुर्थ शती ई.) तत्त्वार्थ सूत्र (सप्तम अध्याय) संस्कृत आचार्य ग्रन्थ
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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