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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७७) आचार्य वसुनन्दि को भस्म करके शुद्ध हो जाता है। ध्यान के महत्त्व को बताते हुए आ० जिनसेन लिखते हैंध्यानमेव तपोयोगाः शेषाः परिकरा: मताः। . ध्यानाभ्यासो ततोयत्नः शश्वत्कार्यों मुमुक्षुभिः।। – (आदिपुराण, २१/७) अर्थ- ध्यान तपों में सर्वश्रेष्ठ है। शेष तप उसके परिकर के सदृश है, अतएव मुमुक्षु जीवों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक निरन्तर ध्यान का अभ्यास किया जाना चाहिए। अशान्त मन को शान्ति का अथाह भण्डार प्रदान करने वाला एकमात्र कुबेर ध्यान ही है। आत्माभिमुख होकर समस्त दु:ख के कारणों का उच्चाटन करने का एकमात्र साधन ध्यान ही है। अतएव ध्यान समस्त तपों में सारभूत तप है, जो कि स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करा सकता है। रत्नमालाकार आ० शिवकोटि ने ध्येयभूत आत्मा के लिए तीन विशेषण दिये हैं- चिदानन्द, परंज्योति, केवलज्ञान का लक्षण सम्पन्न। चैतन्य का आनन्द अर्थात् अव्याबाध सुखों का निलय है आत्मा, अत: आत्मा को चिदानन्द यह विशेषण दिया गया है। दीपक सीमित प्रकाश करता है, परन्तु चैतन्य ज्योति चराचर को प्रकाशित करती है, अत: आत्मा ही परंज्योति है। तीन लोक व अलोक के समस्त पदार्थों को ज्ञेय बनाने का सामर्थ्य आत्मा में है, अत: आत्मा केवलज्ञान सम्पन्न है। . ऐसे आत्मतत्त्व का सदैव ध्यान करना चाहिये।।२७६-७८।। . ... सामायिक प्रतिमा का उपसंहार . एवं तइयं ठाणं भणियं सामाइयं समासेण।। .. पोसहविहिं चउत्थं ठाणं एत्तो पवक्खामि ।। २७९।। अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (सामाइयं तइयं ठाणं) सामायिक नामक तीसरा स्थान, (समासेण) संक्षेप से, (भणियं) कहा, (एत्तो) अब, (पोसहविहिं) प्रोषधविधि नाम के, (चउत्थं ठाणं) चौथे स्थान को, (पवक्खामि) कहूँगा। भावार्थ- इस प्रकार सामायिक नामक तीसरे प्रतिमास्थान को संक्षेप से कहा। अब इससे आगे प्रोषधविधि नाम के चौथे प्रतिमा स्थान को कहूँगा।।२७९।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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