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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७६) आचार्य वसुनन्दि) भाव या समय का प्रयोजन ही सामायिक है, अर्थात् मन, वचन और काय की क्रियाओं का निरोध करके अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना ही, सामायिक है। सामायिक में संलग्न साधक को मन में पंचपरमेष्ठी मन्त्र को स्थापित करके अष्ट प्रातिहार्यों एवं अनन्त चतुष्टय युक्त अर्हतजिन के स्वरूप का अनन्तगुणों से युक्त सिद्ध भगवान का, आचार आदि गुणों से युक्त आचार्य का, द्वादशांग के ज्ञान को धारण करने वाले उपाध्याय एवं ज्ञान-दर्शन- तप और चारित्र में संलग्न साधु परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए। ॐ, अर्हं नमः, ॐ ह्री नमः, ॐ ह्री अर्हं असिआउसा नमः, आदि मन्त्रों का भी चिन्तन-मनन एवं ध्यान करना चाहिए। संवेग— संसार से भयभीत चित्त अथवा धर्म में दृढ़ आस्थावान होकर, अविचल अंग होकर एक क्षण भी जो उत्तम ध्यान करता है वह उत्तम सामायिक व्रतधारी श्रावक है। आचार्य आदिसागर (अंकलीकर) अपने शिष्य महावीर कीर्ति को प्रारम्भिक काल में शिक्षा देते हुए कहते हैं- एकान्त स्थान में पद्मासन से स्थिर बैठकर, आँखें मींचकर, हाथ-पर हाथ धरकर पंचपरमेष्ठी मन्त्र अथवा अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए। (प्रवोधाष्टक प्रस्तावना, २) चेतना की दो दिशाएँ हैं— एक चंचल और दूसरी स्थिर । चंचल चेतना को चित्त और स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है। यह मत ध्यानशतककार को भी स्वीकार है । वे कहते हैं कि जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । जो स्थिर अध्यवसान एकाग्रता को प्राप्त मन है, उसका नाम ध्यान है। इससे विपरीत जो चंचल चित्त है, वह भावना है। — ध्यान को समझाते हुए आ० श्रुतसागर लिखते हैं कि ‘अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। किंवत् ? अपरिस्पन्दमानाग्नि ज्वालावत्। यथा अपरिस्पन्दमानाग्नि ज्वाला शिखा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्देनावभासमानं ज्ञानमेवं ध्यानमिति तात्पर्यार्थः । (तत्त्वार्थवृत्ति, ९/२७)। -- अर्थ - निश्चल अग्नि शिखा के समान अपरिस्पन्दमान निश्चल ज्ञान ही ध्यान कहलाता है। जैसे अपरिस्पन्दमान (स्थिर) अग्नि की ज्वाला शिखा कहलाती है, उसी प्रकार निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान कहलाता हैं। ध्यान चेतना का सम्यक् रूपान्तरण है। ध्यान के बिना आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता । ध्यान द्वारा ही आत्मा अपनी प्रगति करता है। जैसे अग्नि के सम्पर्क में आने पर सुवर्ण की किट्ट कालिमा नष्ट होती है और सोना शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि के सम्पर्क में आने वाला आत्मा अपने पर लगी हुई कर्मों की किट्ट कालिमा
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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