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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७५) आचार्य वसुनन्दि विप्पजोय) संयोग-वियोग को, (तिण-कंचण) तृण-कंचन को, (चंदणं वासिं) चन्दन को और तलवार को, (समभावं) समभाव से, (पस्सइ) देखता है, (च) और, (मणम्मि) मन में, (पंचणवयारं धरिऊण) पंचनमस्कार मन्त्र को धारण कर, (वरअपाडिहेरेहि) उत्तम अष्ट प्रतिहार्यों से, (संजुयं) संयुक्त, (जिणसरुवं) जिनवर के स्वरूप को, (च) और, (सिद्धसरुवं) सिद्धभगवान के स्वरूप को, (झायइ) ध्याता है, (अहवा) अथवा, (ससंवेयं) संवेग-सहित, (अविचलंगो) अविचल अंग होकर, (खणमेक्कम्) एक क्षण को भी, (झाणुत्तम) उत्तम ध्यान को, (झायइ) ध्याता है, (तस्स) उसके, (उत्तमं सामाइयं) उत्तम सामायिक होती है। अर्थ- जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभ को, शत्रु-मित्र को, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग को, तृण-कांचन को, चन्दन को और कुठार को समभाव से देखता है। और मन में पञ्च नमस्कार मन्त्र को धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्यों से संयुक्त अर्हन्त जिनके स्वरूप को और सिद्ध भगवान् के स्वरूप को ध्यान करता है। अथवा संवेग-सहित अविचल-अंग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है, उसके उत्तम सामायिक होती है।। व्याख्या- आ० कुन्दकुन्द प्रवचनसार में कहते हैं समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठ कंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।।२४१।। अर्थ- शत्रु-मित्र वर्ग में समता, सुख-दुख में समता, प्रशंसा-निन्दा में समता, पत्थर-कंचन में समता और जीवन-मरण में भी समता धारण करना श्रमण का लक्षण है। सामान्य साधक को भी सामायिक काल में यतितुल्य कहा है अत: उसे भी समतावान होना चाहिए। १. सामायिक- आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि एकत्वेन गमनं समयः। समेकीभावे वर्तते तद्यथा 'संगतं धृत संगतं तैलम्' इत्युक्ते एकीभूतमिति गम्यते। एकत्वेन गमनं समय: प्रतिनियत काय वाङ्मनस्कर्म पर्यायार्थं प्रतिनिवृत्तत्वादात्मनो द्रव्यार्थेनैकत्व गमनमित्यर्थः। समय एव सामयिकम्। समय: प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम्। – (राजवार्तिक, ७/२१/७) ___ अर्थ— एकत्वरूप से गमन (लीनता) का नाम समय है। 'सम' शब्द एकीभाव अर्थ में है। जैसे 'संगतधृत, संगततैल' ऐसा कहने पर तैल वा धृत एकमेव हुई वस्तु का ज्ञान होता है, अर्थात् इसमें 'समः' शब्द एकीभाव अर्थ में है। इसी प्रकार ‘एकत्व से गमन' एकमेक हो जाने का नाम समय है। अर्थात् काय, वचन और मन की क्रियाओं से निवृत्ति होकर आत्मा का द्रव्यार्थ में एकत्वरूप से लीन होना समय है। समय का
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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