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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७४)
आचार्य वसुनन्दि) अर्थ- सामायिक के समय में गृहस्थ के आरम्भ और परिग्रह नहीं होता है, इसलिए उसे वस्त्र डाले हुए मुनि के समान कहा है। सम्पूर्ण पापकार्यों से रहित सामायिक में श्रावक भी मुनि तुल्य हो जाता है। पं० आशाधर सामायिक का काल निर्णय करते हुए लिखते हैं
परं तदेवमुक्त्ङ्गमिति नित्यमतन्द्रितः।
नक्तं दिनान्तेऽवश्यं तद्भावयेच्छक्तितोऽन्यदा।।सा०प० २९।। . .
अर्थ- सामायिक ही मोक्ष का उत्कृष्ट साधन है, इसलिए आलस्य त्यागकर नित्य रात्रि और दिन के अन्त में अवश्य ही सामायिक करना चाहिए तथा अपनी शक्ति के अनुसार मध्याह्न आदि काल में भी सामायिक करना चाहिए। .
आ० अमृतचन्द्र सूरि भी यही बात कहते हैंरजनीदिनयोरन्ते तदवश्यंभावनीयमविचलितम्। . इतरत्र पुन: समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम्।।पु०सि० १४९।। .
अर्थ- श्रावक को प्रात: और सायं दो बार सामायिक अवश्य करना चाहिए। यदि शक्ति हो तो मध्याह्न में या अन्य समय में भी सामायिक कर सकते हैं। नियमित समय के अलावा अन्य समय में भी सामायिक करने से कोई दोष नहीं हैं बल्कि गुण ही है।।२७४-७५।।
साम्य भाव ही सामायिक काउस्सग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तु-मित्तं च। संजोय-विप्पजोयं तिण कंचण चंदणं वासिं ।। २७६।। जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं । वर-अट्ठपाडि-हेरेहिं संजुयं जिण-सरुवं च।। २७७।। . सिद्ध सरुवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं। खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स।। २७८।।
अन्वयार्थ- (जो) जो श्रावक, (काउसग्गम्हि ठिओ) कायोत्सर्ग में स्थित होकर, (लाहालाह) लाभ-अलाभ को, (सत्तु-मित्तं) शत्रु-मित्र को, (संजोय १. कुठारं
टिप्पणी- गाथा २७४ से ३१२ तक की अनेक गाथायें लगभग संस्कृत छाया जैसी ही गुणभूषण श्रावकाचार में १६४ से १८८ श्लोक तक उपलब्ध हैं।