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वसुनन्दि-श्रावकाचार (६५)
आचार्य वसुनन्दि उपशम- जिसके हृदय में राग-द्वेष, मोह, मद व क्रोध कषायादि दोष स्थिरता को प्राप्त नहीं होते उस श्रेष्ठ भव्य जीव के उपशम गुण जानना चाहिये।
भक्ति- इन्द्र, चक्रवर्ती आदि महापुरुष भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसे भगवान् अरहन्तदेव और निर्ग्रन्थ गुरु की पूजा करना, सेवा-स्तुति करना, उनकी सब प्रकार से विनय करना भक्ति गुण है।
वात्सल्य- जो मुनि अथवा सधर्मी किसी स्वाभाविक रोग आदि से दुःखी हैं उनकी औषधि आदि से सेवा शुश्रूषा करना वात्सल्य गुण कहलाता है।
.. अनुकम्पा– संसार सागर में दुःखी प्राणियों को देखकर, उनके प्रति जो अत्यन्त करुणा या दया रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वह अनुकम्पा है।
जिसके हृदय में यह सम्यग्दर्शन के आठ गुण सुशोभित रहते हैं, वह भव्य प्राणी संसार सुखों को भोगता हुआ अल्प समय में ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।।४९।।
___ अष्ट गुणधारी जीव सम्यग्दृष्टि है इच्चाइ-गुणा बहवो सम्पत्त-विसोहिकारया भणिया। जो, उज्जमेदि एसु' सम्माइट्ठी जिणक्खादो।।५० ।।
अन्वयार्थः- (इच्चाइगुणा बहवो) (उपरोक्त आठ अंग आदि) इत्यादि अनेक गुण, (सम्मत्त-विसोहिकारया) सम्यग्दर्शन की विशुद्धि करने वाले, (भणिया) कहे गये हैं। (जो) जो (जीव), (एस) इनमें, (उज्जमेदि) उद्यम करता है, (उसे), (सम्माइट्ठी जिणक्खादो) जिनेन्द्रदेव ने सम्यग्दृष्टि कहा है।।५० ।।
भावार्थ-आठ अंग, आठ गुण, आस्तिक्य आदि अनेक गुण जिनेन्द्र प्रभु ने सम्यग्दर्शन की विशुद्धि करने वाले कहे है। जो भी जीव इन सभी गुणों को धारण करने का प्रयत्न करता है, हमेशा उन गुणों में रत रहने का उद्यम करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।।५०।।
कर्म निर्जरा का कारण सम्यग्दर्शन संकाइ-दोस-रहिओ णिस्संकाइ-गुण-जुयं परमं। कम्म-णिज्जरण हेऊ तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ।। ५१।।
अन्वयार्थ (जो), (संकाइ-दोस-रहिओ) शंकादि दोषों से रहित है, (णिस्संकाइ परमं गुणजुयं) निःशंकादि परम गुणों से युक्त है, (और),
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झ. 'एदे'.