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वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि
(कम्मणिज्जरण हेऊ) कर्मनिर्जरा का कारण है, (तं) वह, (सुद्धं) शुद्ध, (सम्मतं होइ) सम्यग्दर्शन होता है । । ५१ ।।
अर्थ- जो शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित है, निःशंकित, निःकांक्षित आदि गुणों से सहित है और कर्म निर्जरा का कारण है, वह शुद्ध (निर्मल) सम्यग्दर्शन जानना चाहिये।
सम्यग्दर्शन के अभाव में ऐसी निर्जरा नहीं हो सकती, जो जीव को
व्यख्या
सुखी कर सके।
आचार्य शिवकोटी सम्यग्दर्शन का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं विरत्या संयमनापि हीनः सम्यक्त्यवान्नरः ।
सुदैवं याति कर्माणि शीर्णयत्येव सर्वदा ।। १० ।।
अर्थ — व्रत और संयम से हीन सम्यग्दृष्टि जीव भी निरन्तर पुण्यकर्मों का श्र और पाप कर्मों का विनाश करता है।
पाँच पापों से विरक्त होना, व्रत है तथा पञ्चेन्द्रिय व मन को वश करना और षट्कायिक जीवों की विराधना नहीं करना, सो संयम है। यदि सम्यग्दृष्टि जीव इनसे रहित हो (अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान वर्ती जीव नियमतः व्रत संयम से हीन होता है) तो भी वह सुदैव को प्राप्त करता है ।
इस श्लोक में दैव शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दैव का अर्थ भाग्य करने पर सम्यग्दृष्टि सौभाग्यशाली होता है, ऐसा अर्थ होगा। इससे सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थङ्कर चक्रवर्ती-बलभद्र-कामदेव आदि महापुरुष होगा, ऐसा अर्थ ध्वनित होता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार
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ओजस्तेजो विद्या वीर्ययशो वृद्धि विजय विभवसनाथाः । महाकुला महार्था, मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३६)
अर्थ — सम्यग्दर्शन से पवित्र जीव यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो ओज, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से संयुक्त महान कुलों में उत्पन्न होने वाले, महान पुरुषार्थी, मनुष्य शिरोमणि होते हैं ।
दैव शब्द का अर्थ पर्याय करने पर सुदैव का अर्थ अच्छी देव पर्याय अर्थात् विमानवासी देवपर्याय, यह अर्थ ध्वनित होता है।
उमास्वामी के ‘सम्यकत्वं च।' (तत्त्वार्थसूत्र, ६ / २१) के आधार पर टीकाकार आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि
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