________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार
(६७)
आचार्य वसुनन्दि "अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मा विशेषगतिः पृथक्करणात्।। सम्यक्त्वं दैवस्यायुष आश्रव इत्यभिधानेऽपि सौधर्मादि विशेषगतिर्भवति। कुतः? पृथक्करणात्।
(राजवार्तिक ६/२१/१) अर्थ- विशेष कथन न होने पर भी पृथक् सूत्र होने से सौधर्मादि विशेष गति जाननी चाहिए। सम्यक्त्व देवायु के आस्रव का कारण है। ऐसा सामान्यकथन होने पर भी सम्यग्दर्शन सौधर्मादि कल्पवासी देव सम्बन्धी आयु के आश्रव का कारण है, यह समझना चाहिए, क्योंकि पृथक् सूत्र से यह ज्ञात होता है।
चतुर्थ गुणस्थान में भी अनन्त संसार की कारणभूत कर्म प्रकृतियों का आश्रव नहीं होता।
सम्यग्दर्शन के होने पर ४१ कर्म प्रकृतियों का बंध रुक जाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में विच्छिन्न होने वाली १६ प्रकृतियाँ- मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तामृपाटिका संहनन, एकेन्द्रियजाति, विकलत्रयतीन, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकगति नरकागत्यानुपूर्वी, नरकायु।
इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान में बन्धव्युच्छिन्न होने वाली २५ प्रकृतियाँ हैंअनन्तानुबंधी,क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्यानगृद्धी, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, वज्रनाराचसंहनम, नाराचसंहनन अर्धनाराचसंहनन, कीलकसंहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु, उद्योत। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९५-९६)
एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका जीव अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक काल संसार में नहीं भटकता, यह सम्यग्दर्शन का महत्त्व है।।५१।।
आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वालों के नाम रायगिहे णिस्संको चोरो णामेण अंजणो भणिओ। चंपाए णिक्कंखा वणिगसुदा गंतमइणामा।। ५२।। णिविदिगिच्छो राओ उहायणु णाम रुहवरणयरे। रेवइ महुराणयरे अमूढदिट्ठी मुणेयव्या।। ५३।।
... १. झ प्रतौ पाठोऽयमधिक:- ‘अतोगाथाषट्कं भावसंग्रहग्रंथात्। भावसंग्रह गा.
२८०-२८३.