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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (६४) आचार्य वसुनन्दि सम्यग्दर्शन के आठ गुण संवेओ णिव्वेओ जिंदा गरहा' उपसमो भत्ती। वच्छल्लं' अणुकंपा अट्ठ गुणा होति सम्मत्ते ।। ४९।।३ अन्वयार्थ- (सम्मत्ते) सम्यग्दर्शन के होने पर, (संवेओ णिव्वेओ जिंदा, गरहा उवसमो भत्ती वच्छल्लं अणुकंपा) संवेग, निग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा, (अट्ठ गुणा) (ये) आठ गुण, (होति) होते हैं।।४९।। . अर्थ- सम्यग्दर्शन के होने पर संवेग, निवेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण होते हैं। व्याख्या- सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के सिवाय आठ गुण भी होते हैं जिन्हें ग्रन्थकार ने यहां प्रस्तुत किया है। संवेग- जन्म, मरण आदि अठारह दोषों से रहित देव में, हिंसादि दोषों से रहित धर्म में, आत्मा का हित करने वाले शास्त्र में और परिग्रह रहित गुरु में अत्यन्त अनुराग व प्रेम रखना संवेग कहलाता है, अथवा संसार के दुःखों से भयभीत रहना संवेग कहलाता है। निवेग (निवेद)- ये इन्द्रियों के भोग काले सर्प के फण के समान हैं तथा यह जन्म-मरण रूपी संसार सज्जन पुरुषों को अत्यन्त दुःख देने वाला है और यह शरीर अनन्त रोगों का घर है ऐसे इस संसार शरीर और भोगों से विरक्त होना वैराग्य धारण करना निर्वेद कहलाता है। संवेग और निर्वेद में विशेष अन्तर नहीं है। निन्दा-अपने द्वारा किये गये पाप कर्मों की पश्चातापपूर्वक आत्म-साक्षी में निन्दा करना निन्दा है। आ० जयसेन ने भी लिखा है- आत्म साक्षिदोषप्रकटनं निन्दा। (समयसार, तात्पर्यवृत्ति ३०६)। ____ गर्दा— राग-द्वेष आदि विकारों के द्वारा जो पाप किये गये हैं, उनकी श्रेष्ठ गुरु के सामने बैठकर भक्तिपूर्वक व पश्चात्तपपूर्वक आलोचना करना गुरु के सामने अपने सर्व दुष्कर्मों का निवेदन करना गर्दा है। १. झ. गरुहा. २. झ.ध.प. प्रतिषु गाथोत्तरार्धस्यायं पाठः ‘पूयाअवण्णज़णणं अरुहाईणं पयत्तेण।' ३. संवेगो निवेदो निंदा गर्दा तथोपशमभक्ती। वात्सल्यं अनुकंपा चाष्टगुणाः सन्ति सम्यक्त्वे।७० ।। उमा.श्राव ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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