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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि
प्रत्येक क्रिया आत्मा को उज्ज्वल बनाने में निमित्त होती है। वह किसी मिथ्यामार्गी जीव को अभ्युदय प्राप्त करते हुए देखकर भी ऐसा विचार करता है कि उसका वह वैभव पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों का फल है, मिथ्यामार्ग के सेवन का नहीं। अत: वह मिथ्यामार्ग की न तो प्रशंसा करता है और न उसे उपादेय ही मानता है। यह श्रद्धालु तो होता है, पर अन्ध श्रद्धालु नहीं। अमूढ़दृष्टि अन्ध श्रद्धा का पूर्णरूपेण त्याग करता है।
उपगूहन अंग रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष मार्ग स्वयं निर्मल है। यदि कदाचित् अज्ञानी अथवा शिथिलाचारियों द्वारा उसमें कोई दोष उत्पन्न हो जाय - लोकापवाद का अवसर आ जाये तो सम्यग्दृष्टि जीव उसका निराकरण करता है, उस दोष को छिपाता है। यह क्रिया उपगूहन कहलाती है। अज्ञानी और अशक्त व्यक्तियों द्वारा रत्नत्रय और रत्नत्रय के धारक व्यक्तियों में आये हुए दोषों का प्रच्छादन करना उपगूहन-अंग है। इस अंग का अन्य नाम उपबृंहण भी है, जिसका अर्थ आत्मगुणों की वृद्धि है।
करना है ।
स्थितिकरण अंग— सांसारिक कष्टों में पड़कर, प्रलोभनों के वशीभूत होकर या अन्य किसी प्रकार से बाधित होकर जो धर्मात्मा व्यक्ति अपने धर्म से च्युत होने वाला है अथवा चारित्र से भ्रष्ट होने वाला है, उसका निवारण करना अथवा भ्रष्ट होने के निमित्त को हटाकर उसे उसके धर्म / आचरण में स्थिर करना स्थितिकरण अंग है।
वात्सल्य अंग— धर्मे का सम्बन्ध अन्य सांसारिक सम्बन्धों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह राग प्रशस्त की ओर ले जाता है । सधर्मी बन्धुओं के प्रति उसी प्रकार का आन्तरिक स्नेह करना, जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से करती है। वस्तुतः सधर्मी बन्धुओं के प्रति निश्छल और आन्तरिक स्नेह करना वात्सल्य है । मायाचार, अभिमान, धूर्तता आदि को छोड़कर सद्भावनापूर्वक सधर्मियों का आदर, सत्कार, पुरस्कार, विनय, वैयावृत्त्य, प्रशंसा आदि करना वात्सल्य है।
प्रभावना अंग— जगत् में वीतराग मार्ग का विस्तार करना, धर्म सम्बन्धी भ्रम को दूर करना और धर्म की महत्ता को स्थापित करना प्रभावना है। देव, शास्त्र, गुरु और धर्म के स्वरूप को लेकर जनसाधारण में जो अज्ञान भाव है, उसे दूर करना प्रभावना अंग के अन्तर्गत है।
सम्यग्दृष्टि रत्नत्रय के तेज से आत्मा को प्रभावित करते हुए दान, तप, विद्या, जिनपूजा, मन्त्रशक्ति आदि के द्वारा लोक में जिनशासन का महत्त्व प्रकट करता है। जिन शासन की महिमा जिन-जिन कार्यों से अभिव्यक्त होती है, उन उन कार्यों का आचरण सम्यग्दृष्टि करता है।
इन आठ अंगों का पालन प्रत्येक जैन श्रावक / साधक को करना चाहिये जिसमें आठ अंग हैं वही सम्यग्दृष्टि है । । ४८ ।।