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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (६२) आचार्य वसुनन्दि सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन णिस्संका णिकंखा णिव्विदिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगृहण ठिदियरणं वच्छल्ल पहावणा चेव ।। ४८।। अन्वयार्थ– (णिस्संका णिकंखा णिविदिगिच्छा अमूढदिट्ठी य उवगृहण ठिदियरणं वच्छल्ल चेव पहावणा) निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, . अमूढ़दृष्टि और उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना (ये सम्यग्दर्शन के आठ. ' अंग हैं)।।४८।। अर्थ- निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग है। व्याख्या– जिस प्रकार मानव शरीर में दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ, उरुस्थल, और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से परिपूर्ण रहने पर ही मनुष्य. कार्य करने में समर्थ होता है, इसीप्रकार सम्यग्दर्शन के भी निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं। इन अष्टाङ्ग युक्त सम्यग्दर्शन का पालन करने से ही संसार-संतति का उन्मूलन होता है। इन अंगों में प्रारम्भिक चार अंग वैयक्तिक और बाद वाले चार अंग सामाजिक उन्नति के लिये आवश्यक हैं। निःशंकित अंग – वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी परमात्मा के वचन कदापि मिथ्या नहीं हो सकते। कषाय अथवा अज्ञान के कारण ही मिथ्या भाषण होता है। जो राग-द्वेष मोह से रहित निष्कषाय, सर्वज्ञ हैं, उनके वचन मिथ्या नहीं हो सकते। इस प्रकार वीतराग-वचन पर दृढ़ आस्था रखना निःशंकित अंग है। नि:कांक्षित अंग- किसी प्रकार के प्रलोभन में पड़कर परमत की अथवा सांसारिक सुखों की अभिलाषा करना कांक्षा है, इस कांक्षा का न होना निःकांक्षित धर्म है। सांसारिक सुख की किसी प्रकार की आकांक्षा न करना निःकांक्षित अंग है। निर्विचिकित्सा अंग- मुनिजन देह में स्थित होकर भी देह सम्बन्धी वासना से अतीत होते है। अत: वे शरीर का संस्कार नहीं करते। उनके मलिन शरीर को देखकर ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है। वस्तुत: मनुष्य के अपवित्र देह भी रत्नत्रय के द्वारा पूज्यता को प्राप्त हो जाता है। अतएव मलिन शरीर की ओर ध्यान न देकर रत्नत्रयभूत आत्मा की ओर दृष्टि रखना और बाह्य मलिनता से जुगुप्सा या ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है। अमूढ़दृष्टि अंग- सम्यग्दृष्टि की प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्वक होती है। वह किसी का भी अन्धानुकरण नहीं करता। वह सोच-विचारकर प्रत्येक कार्य करता है। उसकी
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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