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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
(६१)
आचार्य वसुनन्दि)
से जानना।
आचार्य अकलंक देव ने लिखा है कि -
सम्यगिति प्रशंसाओं निपातः स्वयन्तो वा।।१।। सम्यगित्ययं निपातः प्रशंसाओं वेदितव्यः सर्वेषां प्रशस्तरूपगतिजातिकुलायुर्विज्ञानादीनाम् आभ्युदयिकानां मोक्षस्य च प्रधान कारणत्वात्। 'प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनम'। ननु च “सम्यगिष्टार्थ तत्त्वयोः' इति वचनात् प्रशंसाभाव इति, तन्न, अनेकार्थत्वानिपातानाम्। अथवा सम्यगिति तत्त्वार्थों निपातः, तत्त्वं दर्शनं सम्यग्दर्शनम्" अविपरीतार्थ विषयं तत्त्वमित्युच्यते, अथवा क्वयन्तोऽयं शब्द: समश्चतीति सम्यक्। यथा अर्थोऽवस्थितस्तथैवावगच्छतीत्यर्थः ।
(राजवार्तिक १/२/१) अर्थ- 'सम्यक्' यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) या क्वयन्त प्रत्ययान्त है। सम्यक् शब्द को निपात, प्रशंसा अर्थ में जानना चाहिए क्योंकि यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, आयु, विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस् का प्रधान कारण होता है। प्रशस्त दर्शन सम्यग्दर्शन है।
शङ्का– 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाण के अनुसार सम्यक् शब्द का प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थ में होता है अत: इसका प्रशंसा अर्थ उचित नहीं है।
समाधान- निपात शब्द अनेकार्थक है, इसलिए प्रशंसा अर्थ मानने में कोई विरोध नहीं है। अथवा सम्यक शब्द का अर्थ तत्त्व में निपात किया जाता है, जिसका अर्थ है तत्त्वदर्शन सम्यग्दर्शन अविपरीत अर्थ को तत्त्व कहते हैं। अथवा सम्यक् शब्द क्विप् प्रत्ययान्त है। इसका अर्थ है, जो पदार्थ जैसा हैउसको वैसा ही मानने वाला। . देवशास्त्र और गरु पर किया गया श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के महत्त्व को बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि -
___जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होइ। तह जिणदंसण मूलो णिहीट्ठो मोक्ख मग्गस्स ।।
(दर्शनपाहुड, ११) अर्थ- जिस प्रकार मूल से वृक्ष का स्कन्ध और शाखाओं का परिवार वृद्धि आदि अतिशय से युक्त होता है, उसी प्रकार जिन दर्शन-आर्हत् मत अथवा जिनेन्द्रदेव का प्रगाढ़ श्रद्धान मोक्ष मार्ग का मूल कहा गया है।
ग्रन्थकार कहते हैं कि सम्यकत्त्व ही परम तत्त्व है एवं सम्यकत्त्व ही परम पद है और ऐसा सम्यग्दर्शन तत्त्वज्ञानी के ही सम्भव है।।४७।।