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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि
उमास्वामी ने कहे हैं — “नामस्थापना द्रव्यभावतस्तन्यासः । । ५ । ।” प्रमाण-नयैरधिगमः । । ६ ॥ सत्संख्या क्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पवहुत्वैश्च ।। ८ ।। इत्यादि । इन्हें विस्तार से सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक आदि में देखना चाहिये । । ४६ ।।
सम्यग्दृष्टि कौन?
सत्त वि तच्चाणि मए भणियाणि जिणागमाणुसारेण । सम्माट्ठी
याणि
सद्दहंतो
अन्वयार्थ – (सत्त वि तच्चाणि मए) ये सात तत्त्व मैंने, (जिणागमाणुसारेण भणियाणि) जिनागमानुसार कहे है; (एयाणि सहहंतो ) इन पर श्रद्धान करने वाला, (सम्माइट्ठी) सम्यग्दृष्टि, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये ।। ४७ ।।
मुणेयव्वो ।। ४७ ।।
अर्थ — मैंने (आचार्य वसुनन्दी ने ) जिनेन्द्र देव द्वारा कथित ग्रन्थों को अच्छी तरह जानकर इन सात तत्त्वों का यहां पर कथन किया है। जो भव्य जीव इन सात तत्त्वों को रुचिपूर्वक श्रद्धान करता है, मानता है वह जीव सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना चाहिये। जो जीव सात तत्त्वों को जानकर भी उन पर श्रद्धा नहीं करता, जिनागम को नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है।
व्याख्या— प्रत्येक भव्य जीव को सदा सावधान रहना चाहिए कि कहीं उसके द्वारा देव, शास्त्र, गुरु अथवा महान पुरुषों की अवज्ञा न हो जाये । वह जिनवाणी के सूत्रों के विरुद्ध न चल जाये। जो हमेशा अपने श्रद्धान, विश्वास को सुरक्षित रखते हुए प्रवृत्ति करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं। आचार्य शिवकोटि सम्यग्दर्शन का लक्षण करते हुए कहते हैं
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अमीषां पुण्यहेतूनां श्रद्धानं तन्निगद्यते ।
तदेव परमं तत्त्वं तदेव परमं पदम् ।। ( रत्नमाला ९ ) ।।
अर्थ- देव-शास्त्र-गुरु पर जो कि पुण्य के हेतु हैं, उन पर श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन ही परम तत्त्व और परम पद हैं।
संस्कृत भाषा में “सम्” नामक एक उपसर्ग है, जिसका अर्थ है, अच्छ से। “अञ्चगतिपूजनयोः” इस नियमानुसार अञ्च धातु का अर्थ गमन करना अथवा पूजन करना है। “समञ्चतीति सम्यक् " इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अच्छी तरह से गमन कर रहा हो अथवा जो निजात्मा के गमन स्वभाव में परिणमन कर रहा हो, वह सम्यक् है, ऐसा अर्थ सम्-अञ्च में क्विप् प्रत्यय लगाने पर बनता है ।
यह नियम है कि जो धातु गमनार्थक होती हैं, वे ज्ञानार्थक भी होती हैं। जब अञ्च धातु ज्ञानार्थक मानी जायेगी, तब अर्थ होगा, सम्पूर्ण पदार्थों को सम्यक् प्रकार