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________________ (६१) से मुक्त हो, अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंच परमेष्ठियों का उपासक हो तथा सत्यमार्ग का अनुयायी हो सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार- शरीर भोगनिर्विण्णः । पंचगुरुचरणशरणो दार्शनिकस्तावपथगृह्यः । । १ यहाँ दार्शनिक श्रावक होने की सबसे आवश्यक शर्त यह है कि वह सम्यक्त्वी होने के लिए उसे वीतरागी आप्तदेव, आगम और जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वों पर आस्था होना अपेक्षित है। ऐसा सम्यक्त्वी दार्शनिक श्रावक संसार की अनश्वरता और आत्मशक्ति पर विचार करते-करते शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टित्व, अनूपगहनत्व, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना इन आठ दोषों से दूर हो जाता है और अपनी आत्मा में नि:शंकित आदि आठ गुण प्रगट कर लेता है। वसुनन्दि ने दर्शन प्रतिमा के सन्दर्भ में पंचोदुम्बर और सप्तव्यसन न्याय की बात कही है ( २०५-६)। ३. सम्यग्दर्शन के विघातक दोष : अध्यात्मिकता का अभिशाप सम्यग्दृष्टि जीव लोक, देव और पाखण्ड इन तीन मूढताओं से दूर रहता है । वह सूर्य को अर्घ देना, नदी, समुद्र आदि में स्नान करना, अग्नि की पूजा करना, चन्द्र, सूर्य आदि को देवतारूप में स्वीकार करना, विविध वेषधारी पाखण्डी साधुओं का आदर-सम्मान करना आदि जैसी मूढताओं, क्रियाओं और अन्ध मान्यताओं पर विश्वास भी नहीं करता। अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, सिद्धि, तप और शरीर इन आठ . प्रकार के मद-अभिमान में वह कोसों दूर रहता है। कुदेव, कुमतावलम्बी सेवक, कुशास्त्र, कुतप, कुशास्त्रज्ञ और कुलिंग, इन षट्अनायतनों से वह अपने आपको बहुत दूर रखता हैं इन अनायतनों का विकास सम्भवतः उत्तरकालीन रहा होगा। शंकादि आठ दोषों से भी उसे मुक्त होना चाहिए। - निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से बारह भावनाओं का अनुचिन्तन भी अपेक्षित साथ ही उत्तम क्षमादि दश धर्मों का पालन किया जाना चाहिए। अनुप्रेक्षाओं और धर्मों का पालन करने से श्रावक की वृत्तियाँ शान्त होने लगती हैं और वह सम्यक्त्व की ओर अग्रसर हो जाता है सम्यक्त्व होने से पूर्व उसे पाँच लब्धियां प्राप्त होती हैं१. क्षयोपशम (देशघाती) स्पर्शो के उदय सहित कर्मों की अवस्था, २. विशुद्धि (मंदकषाय), ३. देशना (तत्त्वों का अवधारण), ४. प्रयोग्य अथवा यथाप्रवृत्तिकरण (मंदता) और ५. करण (निर्मल परिणाम ) । करणलब्धि के तीन भेद किये गये हैंअध:करण (पहले और पिछले समय में परिणाम समान हों), अपूर्वकरण (अपेक्षाकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १३७.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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