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विसुनन्दि-श्रावकाचार (४९)
आचार्य वसुनन्दि) कर्मों का, (कत्ता) कर्ता है, (जम्हा) क्योंकि (वही कर्मों के), (फलभोयओ) फल को प्राप्त करता है, (और वही), (तप्फलभोया) उस कर्मफल का भोक्ता है, (सेसा) शेष द्रव्य, (ण भोया कत्तारा) कर्ता भोक्ता नहीं हैं।।३५।।
अर्थ- एक जीव द्रव्य ही शुभ और अशुभ कर्मों का करने वाला है, क्योंकि उदयागत कर्मों के फल को भोगते हुए देखा जाता है, इसलिये भोक्ता भी सिद्ध होता है। शेष द्रव्य कर्मों के कर्ता भोक्ता नहीं हैं।।३५।।
__व्याख्या- यह जीव मन, वचन, काय की शुभ रूप चेष्टाओं से शुभ (अच्छे) कर्मों का बंध कर्ता है और अशुभ रूप चेष्टाओं से अशुभ (बुरे) कर्मों का बंध करता है। यही जीव अपने पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का भोक्ता भी होता है अर्थात् शुभ कर्मोदय के होने पर सुख रूप और अशुभ कर्मोदय से दुःख रूप फल को भोगता है शेष कोई भी द्रव्य कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं हैं।
. सर्वगत द्रव्य सव्वगदत्ता सव्वगमायासं णेव सेसगं दव्वं। ..
अप्परिणामादीहिं य बोहव्वा ते पयत्तेण।।३६।। अन्वयार्थ- (सव्व-गदत्ता) सर्वत्र व्यापक होने से, (आयासं) आकाश को, (सव्वगम्) सर्वगत कहते हैं।, (सेसगं दव्वं णेव) शेष कोई भी द्रव्य (सर्वगत) नहीं है। (इसप्रकार), (अप्परिणामादीहि य) अपरिणामित्व आदि के द्वारा, (ते) उन (द्रव्यों) को (पयत्तेण) प्रयत्नपूर्वक, (बोहव्वा) जानना चाहिये।।३६।। - भावार्थ- सम्पूर्ण लोक और अलोक में व्यापक होने से आकाश को सर्वत्र व्यापी (सर्वगत) कहते हैं। शेष कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं हैं जो सर्वगत हो, क्योंकि जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य लोकाकाश में ही रहते हैं, बाहर नहीं रहते हैं। - इस प्रकार परिणामित्व, जीवत्व, मूर्तत्व, प्रदेशत्व, सक्रियत्व, नित्यत्व, कारणत्व, कर्तृत्व और सर्वगत्तत्त्व आदि के द्वारा इन सभी द्रव्यों को प्रयत्न के साथ जानना चाहिये, तथा अटल श्रद्धा करना चाहिए।।३६।।
अप्रवेशी द्रव्यों का स्वभाव ताण पवेसो वि तहा णेओ अण्णोण्णमणुपवेसेण।
णिय-णियभावं पि सया एगीहुंता वि ण मुयंति।।३७।। १. झ. उक्तं.