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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (५०) आचार्य वसुनन्दि) अन्वयार्थ - (ताण) (यद्यपि ये छहों द्रव्य) वे, (पवेसो) प्रवेश कर रहते है, (तहा पि) फिर भी, (अण्णोण्णमणुपवेसेण) एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं, (णेओ) जानना चाहिए। (क्योंकि), (एगीहुंता वि सया) सदा एक होने पर भी, (णिय-णिय-भावं पि ण मुयंति) अपने-अपने स्वभाव को भी नहीं छोड़ते हैं।।३७।। अर्थ- वे छहो द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश कर रहते हैं, फिर भी एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं जानना चाहिए। क्योंकि मिलकर रहते हुए भी वे अपने-अपने - स्वभाव को नहीं छोड़ते है। व्याख्या- यद्यपि जीवादिक छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश कर इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार एक शक्कर से भरे हुए गिलास में पानी, नीबू, नमक ऊपर से डालने पर भी रह जाते हैं, फिर भी एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं होता है; क्योंकि . कोई भी द्रव्य अपने वास्तविक स्वभाव को नहीं छोड़ता अर्थात् सभी अपने-अपने स्वभाव में रहते हैं।।३७।। उपरोक्त सन्दर्भ में कहा भी है - अण्णोणं पविसंता दिंता उग्गासमण्णमण्णेसिं । मेलंता वि य णिच्चं सग-सग भावं ण विजहंति ।।३८।। अन्वयार्थ – (छहों द्रव्य), (अण्णोणं पविसंता) एक दूसरे में प्रवेश करते हुए, (उग्गास-मण्णमण्णेसिं दिता) एक दूसरे को अवकाश देते हुए, (मेल्लंता वि य णिच्चं) और परस्पर मिलते हुए भी, (सग-सग-भावं ण विज़हंति) अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। भावार्थ- छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश कर रहते है, एक दूसरे को अवकाश (स्थान) देते हैं और परस्पर नित्य ही मिलकर भी रहते है, किन्तु अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते है। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है वह उसी स्वभाव में स्थिर रहेगा जैसेजीव द्रव्य का स्वभाव चेतना है अथवा जानना देखना है तो वह कभी-भी, कही भी रहे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है। प्रस्तुत गाथा आचार्य कुन्दकुन्द के पञ्चास्तिकाय में आई है। बहुत सम्भव है आचार्य वसुनन्दी ने उद्धरण के रूप में ली होगी, जो पुरानी प्रतियों ‘उक्तं च' लिखा होने पर भी मूल में शामिल है। १. पंचास्तिकाय गा. ७.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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