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'वसुनन्दि- श्रावकाचार
आश्रव के कारण
(५१)
आचार्य वसुनन्दि
मिच्छत्ताविरइकसाय - जोय हेऊहिं? आसवइ कम्मं ।
जीवम्हि उवहि मज्झे जह सलिलं छिद्द णावाए । । ३९ । । १
अन्वयार्थ - (जह उवहिमज्झे) जिस प्रकार समुद्र के मध्य, (छिद्दणावाए) छेद वाली नाव में, (सलिलं) पानी आता है, ( उसी प्रकार ), ( जीवम्हि ) जीव में, . (मिच्छत्ताविरइ- कसाय- जोय हेऊहिं) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन कारणों से, (कम्मं आसवइ) कर्म आस्त्रवित होता है । । ३९ ।।
अर्थ – यहाँ एक दृष्टान्त प्रस्तुत कर द्राष्टान्त की ओर इंगित करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं - जिस प्रकार समुद्र अथवा नदी में तैरती हुई छिद्र युक्त नाव में पानी भरने लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, और योग के कारण से जीव में कर्म आते हैं।
व्याख्या- “शुभाशुभकर्मागमद्वाररूपं आस्रवः ।” अर्थात् शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है। प्रस्तुत गाथा में कर्माश्रव के मुख्यतः चार भेद बतायें हैं, किन्तु अन्य आचार्यों ने कर्माश्रव में कारणभूत प्रमाद सहित पांच कारण माने हैं। सम्भव है आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण करते हुए आचार्य वसुनन्दि ने भी आश्रव के चार कारण माने होंगे। प्रस्तुत है उनका स्पष्टीकरण
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मिथ्यात्व - अपने स्वरूप को भूलकर शरीर आदि पर द्रव्यों में आत्मबुद्धि करना मिथ्यात्व है। इसे विपरीत श्रद्धान भी कहते है । मिथ्यादृष्टि की समस्त क्रियायें और विचार शरीराश्रित व्यवहारों में उलझे रहते हैं। लौकिक यश, लाभ आदि की कामना से ही धर्माचरण करता है । इसे स्व- पर विवेक नहीं रहता और पदार्थों के स्वरूप में भ्रान्ति बनी रहती है।
यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दो प्रकार का होता है। इन दोनों ही मिथ्या दृष्टियों में तत्त्व रूचि जागृत नहीं होती। ये अनेक प्रकार के देव, गुरु और मूढ़ताओं को धर्म मानते हैं। अनेक प्रकार के ऊँच नीच आदि भेदों की सृष्टि कर मिथ्या अहङ्कार का पोषण करते हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर के मद से मत्त होकर
१. झ. हेदूहिं.
२. मिथ्यात्वादि चतुष्केन जिनपूजादिना च यत् ।
कर्माशुभं शुभं जीवमास्पन्दे, स्थात्स आस्रवः । । ६ । । गुण. श्रव.
३. सर्वार्थसिद्धि १/४/वा० १८. ४. समयसार १०९, १६४ आदि.