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________________ वकाचार वसुनन्दि-श्रावकाचार (५२) आचार्य वसुनन्दि अन्य व्यक्तियों को तुच्छ समझते हैं। उनमें आत्मनिष्ठा के अभाव में भय, स्वार्थ, घृणा, पर-निन्दा आदि दुर्गुणों का केन्द्र बना रहता है। संक्षेप में आत्मशक्ति को न पहचानना और शरीर, इन्द्रिय आदि को आत्मा समझना मिथ्यात्व है। अहंता और ममता के कारण आत्मा अपने निज स्वरूप को पहचान नहीं पाती। मिथ्यात्व के कारण आत्मबोध न होने से अपने स्वरूप से विमुखता बनी रहती है। जिस प्रकार बालक मिट्टी के घरोंदे बनाते और बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मा ही इस संसार को बनाती रहती है। अतएव मिथ्यात्व का त्याग अत्यन्त आवश्यक है। मिथ्यात्व के पांच भेद हैं - १. एकान्त, २. विपरीत, ३. विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान। ____ अविरति— सदाचार या चारित्र धारण की ओर रुचि या प्रवृत्ति नहीं होना अविरति है। अविरति पांच व बारह प्रकार की है - १. हिंसा, २. झूठ, ३. चोरी, ४. कुशील, ५.परिग्रह अथवा (१-६) इन्द्रियों और मन के विषय में प्रवृत्ति (७-१२) पाँच स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा करना। कषाय- आत्मा स्वभावत: ज्ञानदर्शन और शान्तिरूप है। उसमें किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है। पर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें आत्मा को कषती हैं और उसे स्वरूप से च्युत कर देती है। जो संसार को बढ़ाये अथवा देश-चारित्र व सकल-चारित्र का घात करे उस कषाय का त्याग किये बिना आत्म-चेतना निर्मल नहीं हो सकती। ये इस प्रकार के विकार हैं, जो निरन्तर आत्मा को कलुषित बनाते हैं। ___वस्तुत: ये विकार ही आत्मा के अन्तरंग शत्रु हैं। इनके हटाने से आत्म-दृष्टि प्राप्त होती है। कषाय के पच्चीस भेद हैं। सोलह कषाय और नव नो कषाय। सोलह कषायों के अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ की गणना है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद की गणना नो कषायों में हैं। योग- मन, वचन, काय के निमित्त से आत्म प्रदेशों में होने वाले, परिस्पन्द क्रिया को योग कहते है। योग के पन्द्रह भेद हैं - १. सत्यमनोयोग- सत्यार्थ को विषय करने वाला मनोयोग। २. असत्यमनोयोग- असत्य को विषय करने वाला मनोयोग। ३. उभय मनोयोग- दोनों प्रकार के पदार्थों को विषय करने वाला मनोयोग। ४. अनुभय मनोयोग- न सत्य और न मृषा।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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