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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (५३)
आचार्य वसुनन्दि) इसी प्रकार चार (५-८) वचनयोग के भेद जानना चाहिए। ९. औदारिक काययोग- मनुष्य-तिर्यंचों का स्थूल शरीरजन्य काययोग। १०. औदारिक मिश्र काययोग- औदारिक शरीर पूर्ण होने के पहले। ११. वैक्रियिक काययोग- विभिन्न प्रकार की विक्रिया-रूपान्तर करने की शक्ति। १२. वैक्रियक मिश्र काययोग– वैक्रियिक शरीर के उत्पन्न होने की पूर्व स्थिति। १३ आहारक काय योग - रसादि धातुरहित उत्कृष्ट संहनन और संस्थान सहित
उत्तमांग सिर से उत्पन्न शरीर। १४. आहारक मिश्र काययोग – आहारक शरीर पूर्ण होने की पूर्व स्थिति। १५. कार्मणकाय योग - ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का समूह।
यह सभी कर्माश्रव में कारण हैं। चंकि अनेक आचार्यों ने प्रमाद को अलग से ग्रहण किया है; किन्तु यहां पर अविरति आदि में ही प्रमाद गर्भित कर लिया गया है। इन सभी आश्रवों से बचना चाहिए।।३९।। . शुभ और अशुभ आश्रव के कारण
अरहंत- भत्तियाइसु सुहोवओगेण आसवइ पुण्णं। विवरीएण दु' पावं णिहिष्टुं जिण-वरिंदेहि।।४०।।
अन्वयार्थ- (अरहंतभत्तियाइस) अरहंत भक्ति आदि (पण्यक्रियाओं) में. - (सुहोवओगेण) शुभोपयोग के होने से, (पुण्णं आसवइ) पुण्य का आस्रव होता है।,
(विवरीएण द) इससे विपरीत, (अशुभोपयोग से), (पावं) पाप का (आस्रव होता - है), (ऐसा) (जिणवरिंदेहि) जिनेन्द्र भगवान् ने (णिहिट्ठ) कहा है।।४०।।
अर्थ- देवशास्त्र गुरु की भक्ति में शुभोपयोग होने से पुण्य का आश्रव होता है। इससे विपरीत अशुभोपयोग से पाप का आश्रव होता है। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। ... व्याख्या- “शुभोपयोग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है और अशुभोपयोग से पाप कर्म का आस्रव होता है। जिन कर्मों का रस- अनुभाग शुभप्रद होता है, वे पुण्यकर्म और जिनकर्मों का अनुभाग अशुभप्रद होता है, वे पापकर्म कहे जाते हैं। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं -
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ब.उ.