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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि) जो जाणदि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे।
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स।।१५७।। अर्थात् जो अरिहंतों, सिद्धों तथा अनगारों को जानता है और श्रद्धा करता है, और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, उसका वह शुभोपयोग है।
विसय कसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठि जुदो ।
उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो तस्स सो असुहो ।।१५८।।. . अर्थात् जिसका उपयोग विषय कषायों में अवगाढ़ (मग्न) है, कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, कषायों की तीव्रता अथवा पापों में उद्यत है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसका वह उपयोग अशुभ है।
सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद एवं तत्त्वार्थराजवार्तिक (अ० ६, सू० ३) में आचार्य . अकलंकदेव कहते हैं – “पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्।" अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करे अथवा जिससे आत्मा पवित्र की जाती है, वह पुण्य कहलाता है। "तत्प्रतिद्वन्द्विरूपं पापम्।" अर्थात् पुण्य का प्रतिद्वन्द्वी पाप है, जो आत्मा को अशुभ रूप करें, वह पाप है।।४०।।
बंध तत्त्व का लक्षण एवं भेद अण्णोणाणुपवेसो जो जीव पएसकम्मखंधाणं। सो पयडि-द्विदि-अणुभव-पएसदो चउविहो बंधो।।४१।।
अन्वयार्थ- (जो जीव पएस कम्मखंधाणं) जो जीवप्रदेश और कर्म स्कन्धों का, (अण्णोणाणुपवेसो) परस्पर में एकमेक हो जाना है (वह बंध है), (सो बंधो) वह बंध (पयडि-द्विदि-अणुभव-पएसदो) प्रकृति, स्थिति, अनुभव, प्रदेश के भेद से (चउविहो) चार प्रकार है।। ४१।।
अर्थ- जीव प्रदेश और कर्म स्कन्धों का परस्पर में तालमेल हो जाना बन्ध है। वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंध के भेद से चार प्रकार का है।
व्याख्या- दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को बंध कहा जाता है। बंध के दो भेद हैं - भावबंध और द्रव्यबंध। जिन राग-द्वेष और मोहादि विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है, उन भावों को भावबंध कहते हैं और कर्म पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों १. ध. अण्णुणा. २. स्यादन्योऽन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः।
स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादि स्वभावकः ।।१७।।गु श्रा. ।