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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५९) आचार्य वसुनन्दि) व्याख्या- जो मिथ्याभाव से युक्त मन्दकषायी, मधुमांसादि के त्यागी, गणियों के गुणों में अनुरक्त, मुनियों एवं अन्य पात्रों को आहार देते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि और बद्धमनुष्यायुष्क भोगभूमियों और कुभोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं। __कुभोगभूमियाँ मनुष्यों को अन्तद्वीपज म्लेक्ष भी कहते हैं। इनके रहने के स्थान कहते हैं- लवणसमुद्र की आठों दिशाओं में आठ और उनके अन्तराल में आठ, हिमवान और शिखरी तथा दोनों विजयाओं के अन्तराल में आठ इस तरह चौबीस अन्तर द्वीपं हैं। दिशावर्ती द्वीप वेदिका से तिरछे पाँच सौ योजन आगे हैं। विदिशा और अन्तरालवर्तीद्वीप ५५० योजन जाकर हैं। पर्वतों के अन्तिम भागवर्ती द्वीप छह सौ योजन भीतर आगे हैं। दिशावर्ती द्वीप सौ योजन आगे हैं। दिशावर्ती द्वीप सौ योजन विस्तृत है। पूर्व दिशा में एक जांघ वाले, पश्चिम में पूंछ वाले, उत्तर में गूंगे, दक्षिण में सींग वाले मनुष्य रहते हैं। विदिशाओं में खरगोश के कान सरीखे कान वाले, पड़ी के समान कान वाले, बहुत चौड़े कान वाले और लम्बे कर्ण वाले मनुष्य हैं। शिखरी पर्वत के दोनों अन्तरालों में मेघ और बिजली के समान मुख वाले, हिमवान् के दोनों अन्तरालों में मत्स्यमुख और कालमुख, उत्तरविजया के दोनों अन्त में हस्तिमुख और आदर्शमुख और दक्षिण विजयार्ध के दोनों अन्त में गोमुख और मेषमुख वाले प्राणी हैं। एक टांग वाले मनुष्य गुफाओं में रहते हैं और शक्कर के समान स्वादिष्ट मिट्टी का आहार करते हैं। बाकी वृक्षों पर रहते हैं और स्वादिष्ट पुष्प फलों आदि का आहार करते हैं। ये सब प्राणी पल्योपम आयु वाले हैं। ये चौबीसों द्वीप जल स्तर से एक योजन ऊँचे हैं। इसी तरह कालोदधि समुद्र में इससे दुगुने अर्थात् ४८ (अड़तालीस) द्वीप कुभोगभूमियाँ • मनुष्यों को रहने के लिए हैं। .. इस समबन्ध में विशेष तिलोयपण्णत्ति में देखें।।२६१।। . भोगभूमियों में यौवन प्राप्त होने का काल जायंति जुयत-जुयला उणवण्णदिणेहि जोव्वणं तेहिं । समचउरससंठाणा वरवज्जसरीर संघयणा ।। २६२।। अन्वयार्थ- (भोगभूमियों में जीव) (जुयल-जुयला-जायंति) युगल-युगलिया उत्पन्न होते हैं, (तेहिं) ये सब, (उणवण्णदिणेहिं जोव्वणं) उनचास दिनों में यौवन दशा को प्राप्त हो जाते हैं, (तथा) (समचउरससंठाणा) समचतुरस्र संस्थान (और) (वरवज्जसरीरसंघयणा) वज्रवृषभनाराच संहनन वाले होते हैं। व्याख्या- भोगभूमियाँ मनुष्य, स्त्री और पुरुष युगल रूप से ही जन्म लेते हैं। वे सब बालक-बालिका युगल शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसनें में, उपवेशन, १. म. संहणणा.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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