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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६०)
आचार्य वसुनन्दि) अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणप्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता में क्रमश: इक्कीस (२१), पैतीस (३५) और उनचास (४९) दिन व्यतीत करते हैं। उत्तम भोगभूमि वाले २१ दिनों में, मध्यम भोगभूमि वाले ३५ दिनों में और जघन्यभूमि वाले ४९ दिनों में युवावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। वे सभी समचतुरस्र संस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त इन्द्रों से भी सुन्दर होते हैं।।२६२।।
भोगभूमियाँ जीवों की कलायें और लक्षण बाहत्तरि कल सहिया चउसद्विगुणसण्णिया तणुकसाया। बत्तीसलक्खणधरा उज्जमसील विणीया य।। २६३।।
अन्वयार्थ- (भोगभूमिया मनुष्य) (बाहत्तरि कलसहिया) बहत्तर कलाओं से सहित, (और स्त्रियाँ) (चउसद्विगुणसण्णिया) चौसठ गुणों से समन्वित, (तणुकसाया) मंदकषायी, (बत्तीसलक्खणधरा) बत्तीस लक्षणों के धारक, (उज्जमसीला). उद्यमशील, (य) और, (विणीया) विनीत होते हैं।.
अर्थ- भोगभूमियाँ मनुष्य बहत्तर कला-सहित और स्त्रियाँ चौसठ गुणों से युक्त, मन्दकषायी, बत्तीस लक्षणों के धारक, उद्यमशील और विनीत होते हैं।
व्याख्या- जैन साहित्य के एक ग्रन्थ औपप०, पृ० १४८-१४९ पर पुरुषों की बहत्तर कलायें निम्न प्रकार से कही हैं१. लेख-लेखन - अक्षर-विन्यास, तद्विषयक कला का ज्ञान २. गणित - अंक-विद्या का ज्ञान, इसके अन्तर्गत लौकिक और
अलौकिक सभी प्रकार की गणित सम्बन्धी सामग्री का ज्ञान
होता है
३. रूप (चित्र)
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- भित्ति-पाषाण, वस्त्र आदि पर चित्रांकन, रेखाचित्र आदि
का ज्ञान - अभिनय, नृत्य आदि - गन्धर्व-विद्या, संगीत आदि। - स्वर एवं लय सम्बन्धी वाद्य बजाने की कला - निषाद, ऋषभ, गान्धार, षडज, मध्यम, धैवत तथा पंचम
स्वरों का परिज्ञान - मृदंग-वादन की विशेष कला
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७. स्वरगत
८. पुष्करगत