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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
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परिशिष्ट
पिछले प्रहर में भोजन नहीं करना । मातंगिनी ने सहर्ष व्रत स्वीकार किया और अपने घर गई। उसके मन में अत्यन्त उल्लास था, मानो एक निधि ही प्राप्त हो गई। जब सन्ध्याकाल हुई उसका पति घर पर आया उसने अपने पति को सारा वृत्तान्त कहा । उसका पति अतिक्रोधी था, धर्ममार्ग से पराङ्मुख था, पाप कार्यों में रत था। ज्योंही उसने त्याग की बात सुनी कि उसकी क्रोधरूपी अग्नि जाज्वल्यमान हो गई। वह क्रोध में आकर कहने लगा कि तूने किसको पूछकर व्रत ग्रहण किये । तुझे अभी भोजन करना पड़ेगा। मातंगिनी ने कहा प्राण जाने पर भी मैं अपने व्रतों को नहीं छोडूंगी, क्योंकि शरीर नष्ट हुआ तो कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, फिर दूसरा शरीर मिल जायगा, परन्तु व्रतों का मिलना बड़ा कठिन है, ऐसा विचार कर वह अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रही । उसके पति ने क्रोध में आकर इतने जोर से मारा कि उसके प्राण चले गये। क्रोधी क्या नहीं
करता
हन्तात्मानमपि ध्वन्तः क्रुद्धाः किं किं न कुर्वते ।
बड़े खेद की बात है अपने आपका भी घात करने वाले क्रोधी क्या-क्या नहीं करते? वह जागरिक की भार्या मरकर रात्रिभुक्तित्याग व्रत के प्रभाव से छप्पन करोड़ दीनार के स्वामी सागरदत्त सेठ के नागश्री नाम की अत्यन्त रूपवती पुत्री हुई। देखो, एक प्रहरमात्र रात्रिभोजन का त्याग करने वाली चण्डालनी सद्गति को प्राप्त हुई तो हमेशा के लिये त्याग करने वाले को सद्गति क्यों नहीं होगी ? अवश्य होगी। ऐसा विचार कर रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिये।