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वसुनन्दि-श्रावकाचार ३३०
परिशिष्ट ... आयातरम्ये परिणामदुःखे सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि।
अर्थात् – वैषयिक सुख परिणाम में दुःखकारक होते हैं इनसे जीवन को क्षणिक शान्ति मिल सकती है। किन्तु अन्त में दुःखदायक ही होते हैं। इसलिये मानव जीवन की सार्थकता करने के लिये मनुष्यों को इनका परित्याग करने का प्रयत्न करना चाहिये। वह त्याग दो प्रकार का है, एक मुनिधर्मरूप और दूसरा गृहस्थ धर्मरूप। सम्पूर्ण सावद्ययोग से विरत होना मुनिधर्म है और एक देश हिंसा, झूठ, चोरी, कुशल, परिग्रहादिका त्याग करना गृहस्थधर्म है। उत्कृष्ट साक्षात् मोक्ष का कारण मुनिधर्म है, . परम्परा मोक्ष का कारण श्रावकधर्म है। तीन मकार का त्याग (मधु, मांस, मद्य) पंचोदुम्बर फल का त्याग, रात्रिभोजन का त्याग, पानी छान कर पीना और रोज देवदर्शन करना यह श्रावकों के मूलगुण हैं। श्रावकों को इनका पालन अवश्य करना चाहिये। सम्यक्त्व और व्रत के बिना मानवजन्म पशु के समान है। मानव जन्म प्राप्त करना अत्यन्त : दुर्लभ है -
जगत्यनन्तैकहृषीकसंकुले, त्रसत्वसंज्ञित्वमनुष्यतार्यता।। सुगोत्रसद्गात्रविभूतिवार्तता सुधिसुधर्माश्च यथाग्रदुर्लभाः।। ..
अनन्तानन्त, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकायादि एकेन्द्रिय जीवों से व्याप्त इस संसार में त्रसत्वपना, संज्ञित्व पद की प्राप्ति, मानवजन्म, आर्यक्षेत्र, सुगोत्र, सुन्दर शरीर, विभूति, आजीविका, अच्छी बुद्धि, सद्धर्म की प्राप्ति यह एकेक उत्तरोत्तर दुर्लभ से दुर्लभ है। मानवजन्म को प्राप्त कर -
श्रद्धानगंधसिन्धुरमदुष्टमुद्यदवगममहामात्रम्। धीरो व्रतबलपरिवृतमारूढोरीन् जयेत्प्रणिधिहेत्या।।
निर्दोष श्रद्धानरूपी हाथी पर चढ़कर ज्ञानरूपी अंकुश चारित्ररूपी सेना से युक्त होकर समाधिरूपी तलवार से कर्मरूपी शत्रुओं का नाश कर मोक्षपद प्राप्त करना चाहिये। ऐसे परमोत्कृष्ट मनुष्य जन्म को व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिये। मुनिवर के समीचीन प्राणी मात्र का हित करने वाले धर्मोपदेश को सुन कर किन्हीं ने मुनिव्रत धारण किया। किन्हीं पवित्र सम्यक्त्व ग्रहण किया और किन्हीं ने उत्कृष्ट श्रावक व्रत ग्रहण किया। जब सब लोग यथाशक्ति व्रत ग्रहण कर चुके तब सबके पीछे खड़ी हुई जागरिक की भार्या विनयपूर्वक दोनों हाथों को मस्तक पर रखकर कहने लगी। हे निष्कारण बन्धु! जगतारक जगबन्धु! पतित पावन! गुरुवर्य! मुझ पतिता का भी व्रत देकर उद्धार करो। मैं मांस मदिरादि का त्याग करने में असमर्थ हूँ, मेरे योग्य व्रत देवो। मुनि- कुंजर ने उसको भव्य समझकर कहा हे वत्सा! तुम रात्रिभोजन का त्याग करो, उसने कहा भो देव! मैं पूर्ण रात्रिभोजन त्याग करने के लिये असमर्थ हूँ, तब गुरुदेव ने कहा हे पुत्री! तीन प्रहर रात्रि व्यतीत होने के बाद में सूर्योदय हो तब तक भोजन नहीं करना अर्थात् रात्रि के