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नमस्कार करने से पुण्य प्रकृति का बंध होता है। ___आज समाज में इस दृष्टि से न विशुद्ध दान रहा है न विशुद्ध दानी। न्यायोपार्जित द्रव्य की कमी और न्यायोपार्जन करने वालों की कमी दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है। असामाजिकता पूर्वक अर्जित सम्पत्ति का दानकर दाता अपने आपको दानी
और दानवीर की पदवी पा लेता है पर उसके भीतर के जीवन को झांको तो वितृष्णा हुए बिना नहीं रहती। ऐसे ही दानियों और सेठों से आज समाज का सारा तन्त्र संचालित है। समाज को प्रदूषित करने में और सच्चरित्रवान् को पीछे ढकेलने में उनका हाथ कम नहीं है। इस दृष्टि जैनाचार्यों द्वारा दी गई दान की यह परिभाषा बड़ी मार्मिक और उपयोगी है। जैसा पण्डित आशाधर आदि विद्वानों और आचार्यों ने सुझाया है कि अपने न्यायपूर्वक अर्जित द्रव्य का कम से कम एक भाग दानकार्य में लगाना चाहिए। यह विभाजन संविभाग है। उपासग-दशांग में भी इसकी अच्छी चर्चा हुई है।
समाज के गरीब तबके के लोगों को साथ लाने में दान सहयोगी तत्त्व सिद्ध हो सकता है। धनी और निर्धनी के बीच बनी खाई को भी उससे पाटा जा सकता है। पर्यावरण की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी तत्त्व है।
इन द्वादश व्रतों को मूलगुण और उत्तरगुण अथवा शीलव्रत के रूप से भी विभाजित किया गया है। शील का तात्पर्य है जो व्रतों की रक्षा करे। उमास्वामी' आदि आचार्यों ने गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को “शीलव्रत' की संज्ञा दी है पर सोमदेव आदि आचार्यों ने पंचोदुम्बरफलत्याग को “मूलगुण' मानकर उनकी संख्या आठ कर दी तथा पांच अणुव्रत,तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों को “उत्तरगुण' मान 'लिया।२ समन्तभद्र ने श्वेताम्बर परम्परानुसार पांच मूलगुणों को कहकर कुन्दकुन्द के . अनुसार गुणव्रतों को स्वीकार किया है। जिनसेन ने उत्तरगुणों की संख्या बारह बताकर
कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है। सोमदेव भी लगभग उसी परम्परा पर चल रहे हैं।
उत्तरकाल में कुछ आचार्यों ने कुन्दकुन्द का अनुकरण किया और कुछ ने उमास्वामी .' का। शीलव्रतों का महत्त्व इस दृष्टि से विशेष आंका जा सकता है कि उनका निरतिचारता
पूर्वक पालन करने से ही तीर्थकर प्रकृति का बन्ध माना गया है। सामायिक आदि शेष प्रतिमाओं का वर्णन मूलग्रन्थों से देखा जा सकता है। आध्यात्मिक पर्यावरण की प्रतिष्ठा में उनका महत्त्व है ही। ____ अणुव्रतों और प्रतिमाओं के प्रकारों में समय के अनुसार परिवर्तन अवश्य मिलता है पर उसकी पृष्ठभूमि सदैव यही रही है कि व्यक्ति शाश्वत सुख की ओर अपने आपको मोड़ता जाये, पर दुःखकातरता की ओर आगे बढ़े और भौतिक सुख-साधनों की ओर
१. चारित्रसारप्राभृत, २४-२५.
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उपासकाध्ययन, २७०, ३१४.