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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (९२)
आचार्य वसुनन्दि) लेकिन रोने से होता क्या है जो किया है वह उसे भोगना ही पड़ता है और बहुत समय तक इस संसाररूपी जंगल में रहना पड़ता है जहां सिंह, व्याघ्र आदि से भी खतरनाक जन्म-जरा मृत्युरूपी श्वापद (पशु) रहते हैं।।७८।।
एवं बहुप्पयारं दोसं णाऊण' मज्जपाणम्मि। मण-वयण-काय-कय-कारिदाणुमोएहिं वज्जिज्जो।।७९।।
अन्वयार्थ- (एवं बहुप्पयारं) इस प्रकार बहुत प्रकार से, (मज्जपाणम्मि) मद्यपान में, (दोसंणाऊण) दोष जानकर, (मण-वयण-कायकयकारिदाणुमोएहि) मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से, (वज्जिज्जो) छोड़ना चाहिये।।७९।।
अर्थ- आचार्य कहते है कि इन दस गाथा सूत्रों से बहुत प्रकार से मद्यपान के बहुत दोषों को जानकर मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना अर्थात् इनं नौ कोटियों से शराब का त्याग करना चाहिये।
व्याख्या-मदिरा अर्थात् शराब मन को मोहित करती है, और मोहित चित पुरुष धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुआ जीव निडर होकर हिंसा का आचरण करता है अर्थात् बेधड़क हिंसा करता है। मदिरा बहुत से जीवों के रस से उत्पन्न होती है तथा बहुत से जीवों के उत्पन्न होने का स्थान मानी जाती है इस कारण जो मदिरा को पीते है, उनके जीवों की हिंसा अवश्य होती है। घमण्ड, डर, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोध आदि हिंसा के भेद है और ये सब ही मदिरा से उत्पन्न होते हैं। अत: मदिरा सर्वथा त्याग देना चाहिये।२ ___ मद्यपायी मनुष्य मूछित होकर गिर पड़ता है। कुत्ते उसके मुख में मूत्र कर देते हैं। चोर वस्त्रादि हर लेते हैं। दुनियां उस पर हँसती है। जिनके कुल में शराब नहीं पी जाती है, उन्हें भी देव-गुरु की साक्षीपूर्वक मद्यपान न करने का नियम लेना चाहिए।३ नियम लेने वाला धूर्तिल चोर की तरह प्राणों से हाथ नहीं धोता और नियम न लेने वाला मद्यपायी एकपद नामक संन्यासी की तरह अगम्यागमन और अभक्ष्यभक्षण करके दुर्गति में भ्रमण करता है। यह दोनों कथाएँ आचार्य सोमदेव के उपासकाचार (पृ० १३०-१३२) में वर्णित हैं। ___ जिस मद्य की एक बूंद से यदि उसमें पैदा होने वाले जीव बाहर फैले तो समस्त संसार उनसे भर जाये तथा जिस मद्य को पीकर उन्मत्त हुए प्राणी अपने इस जन्म और दूसरे जन्म को भी दुःखमय बना लेते हैं, उस मद्य को अवश्य छोड़ना चाहिये।३ १. झ. नाऊण. २. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक ६२-६३-६४. ३. अमितगति श्रा. ५/२-१२. ४. सागार धर्मामृत, २/४, पृ. ४४.