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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (९१)
आचार्य वसुनन्दि अन्य को भी (जिन्हें), (अणिच्छमाणं) अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं समझता, (बाला) बलपूर्वक, (विधंसेइ) मारता है, (अजंपणिज्जं जंपइ) न बोलने योग्य वचन बोलता है, (मयमत्तो) मद मत्त हुआ, (किंपि ण विजाणइ) कुछ भी नहीं जानता है।।७६।।
भावार्थ- बर्तनों को तोड़ चुकने के बाद भी जब शराबी का क्रोध शान्त नहीं होता तब वह अपने पुत्र को बहिन को और जिन्हें अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं समझता उन्हें भी जबरदस्ती मारने लगता है। न बोलने योग्य खोटे बचनों को बोलता है। मद्य से उन्मत्त हुआ मनुष्य कुछ भी नहीं जानता। अपने हित और अहित को भूल असैनी से भी बेकार हो जाता है।।७६।।
इय अवराइं बहुसो काऊण बहूणि लज्जणिज्जाणि। अणुबंधइ बहु पावं मज्जस्स वसंगदो संतो।। ७७।।
अन्वयार्थ- (मज्जस्स वसंगदो संतो) मद्य के वशीभूत होकर, (इय अवराई बहुसो) इस प्रकार बहुत से अपराध (और), (बहूणि लज्जणिज्जाणि काऊण) अनेक लज्जा के योग्य निर्लज्ज कार्यों को करके, (बहु पावं अणुवंधइ) बहुत से पापों को बांधता है। ७७।।
भावार्थ- मद्यपान से उन्मत्त पुरुष मद्य के वशीभूत होकर के उपरोक्त प्रकार से बहुत अपराध कार्यों को करके तथा अनेक लज्जा के योग्य निर्लज्ज कार्यों को करके बहुत परिमाण में पाप कर्मों का बंध करता है।।७७।।
पावेण तेण बहुसो जाइ-जरा-मरण-सावयाइण्णे। पावइ अणंत दुक्खं पडिओ संसार कंतारे।।७८।।
अन्वयार्थ- (तेण बहुसो पावेण) उस बहुत से पाप के कारण, (जाइ-जरा-मरण सावयाइण्णे) जन्म-जरा-मृत्युरूपी श्वापदों से आकीर्ण, (संसार कंतारे पडिओ) संसाररूपी वन में पड़कर, (अणंत दुक्खं पावइ) अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है।
भावार्थ- उस भयानक पूर्वकृत पापों के परिणामस्वरूप वह मद्य पायी जन्म, जरा, मृत्युरूपी श्वापदों (सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जानवरों) से आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसाररूपी भयानक जंगल में पड़कर अनन्त दुःखों को बहुत काल तक प्राप्त करता है।
एक शराब मात्र के सेवन से जीव अविवेकी, उन्मत्त होकर भयानक कर्मों का बंध कर लेता है परिणामस्वरूप जब वे कर्म भयानक अशुभ फल देते हैं तो रोता है,