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________________ (५९) स्वयं को धोखा देना हैं अपनी प्रतिरोधात्मक शक्ति पर परदा डाल देना है। उसे न समाजवाद में देखा जा सकता है न सर्वोदयवाद में और न उसका कोई स्थान साम्यवाद में है। वह तो व्यक्ति का एक अहं नशा है जिसे वह अपने पारिवारिक, सामाजिक आदि के संघर्ष को भुला देने का साधन मान बैठता है। उसके जीवन में न चिरस्थायी शान्ति आती है और न वह अपने चरित्र का उत्कर्ष कर पाता है। उसके मान, विचार और व्यवहार में दीमक लग जाती है और वह अध्यात्म की परिभाषा को पूरी तरह भूल जाता है। व्यसन में आकण्ठमग्न व्यक्ति का जीवन क्रान्ति की घटना को छ भी नहीं पाता। चित्त की परतन्त्रता में आनन्द रफूचक्कर हो जाता है। उसके विकास के पंख उसी तरह कट जाते है जिस तरह पिंजरे में बैठी चिड़िया पंख रहते हुए भी उड़ना भूल जाती है। वह एक थोड़ी शान है, शान का एक मनगढन्त स्टेटस सिम्बल है, सभी को धोखा देने वाले साधन है उसी तरह जिस तरह खेत में झूठा आदमी खड़ा रहता है। व्यसन की परतन्त्रता से मक्त होने के लिए आध्यात्मिक जागरण और मानसिक शान्ति का होना आवश्यक है। वृत्ति का उदात्तीकरण बिना आत्मचिन्तन के नहीं हो सकता। आत्मशक्ति की पहचान और स्व-पर पदार्थों के बीच भेदकरेखा खींचे बिना व्यसनं से मुक्ति पाना नितान्त कठिन है। यही कारण है कि जैनचार्यों ने व्यसन त्याग को व्रत की सीमा से जकड़ दिया है और व्यवस्था की सीमा से बाहर कर दिया है। व्यवस्था में देशकाल के अनुसार परिवर्तन होता रहता है पर व्रत तो जीवन शुद्धि का एक विशिष्ट साधन है। जैनाचार्यों ने व्यसन त्याग को इसीलिए व्रत में परिगणित कर दिया हैं सामाजिक पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने के लिए व्यसन मुक्त जीवन अत्यावश्यक है अन्यथा इसी जीवन में सातवें नरक के दर्शन होने लगेंगे। ___ पाक्षिक श्रावक एक सामान्य श्रावक की संज्ञा है जिसके आचरण से सारा सामाजिक पर्यावरण बदल जाता है। उसकी महारम्भत्याग वृत्ति, सेवाभाव, निरपेक्षता, इन्द्रिय, निग्रह, शीलता, अनासक्ति, अक्रूरता, माध्यस्थभाव, उदारता, न्यायमार्ग वृत्ति, कृतज्ञता, दानशीलता आदि सद्गुण सभी प्रकार के दुर्व्यसनों से उसे दूर रखते हैं। उसकी अहिंसक वृत्ति उसे सही मानव बनने का मार्ग प्रशस्त कर देती है। उपभोग परिमाणव्रत जैसे कदम एक ओर भोजन सम्बन्धी तृष्णा को समाप्त करने में सहयोग देते हैं तो दूसरी ओर हिंसक उद्योगों और कार्यों से दूर रहने की भी प्रेरणा जाग्रत करते हैं। एतदर्थ जैनधर्म पन्द्रह प्रकार के कर्मादानों से मुक्त रहने का आश्वासन चाहता है- अंगार कर्म (वृक्षादि जलाना), वनकर्म (जंगलों को कटवाना), शाकट कर्म (गाड़ी, स्कूटर आदि बनाना), भाटक कर्म (ऊँट आदि को किराये पर देना), स्फोटनकर्म (खनिज पदार्थों से आजीविका चलाना), दन्त वाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, मदिरा आदि रस वाणिज्य, केश, वाणिज्य विष वाणिज्य, यन्त्र पीडन कर्म, निर्लाञ्छन कर्म (बैल आदि को नपुंसक बनाना), दावाग्नि दापन, सरो-हृद-तडाग शोषण और असतीजन पोषणता (वेश्यादि
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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