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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९३)
आचार्य वसुनन्दि) अर्थ- जो मनुष्य शरीर की सामर्थ्य का विचार न कर व्रत का नियम करता है उसका मन संक्लेशित होता है। जिससे वह पश्चाताप करने लगता है और इससे पालन किये गये व्रत का फल नहीं मिलता है।"
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा।
औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररुपापवादिकी त्वेषा ।।७६ ।। अर्थ- साधारणत: सर्वथा त्याग को उत्सर्ग त्याग कहते हैं। यह नौ प्रकार का होता है। मन से, वचन से, काय से, आप न करना, दूसरे से न कराना, और करने वाले को भला नहीं समझना। इन नौ भेदों में से किसी भेद का थोड़ा बहुत किसी प्रकार से त्याग करने को अपवाद कहते हैं। इसके बहुत भेद हैं। तात्पर्य यही है कि लिये गये नियम का सही रूप में पालन करो।
शङ्का- पुराणों में कथन आता है कि चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े राजा भी अणुव्रतों का पालन करते थे, यह कैसे सम्भव है, क्योंकि उन्हें दण्ड आदि व्यवस्थायें रखनी ही पड़ती हैं।
समाधानं- चक्रवर्ती अथवा धर्म प्रिय राजा निष्पक्ष होकर जो शत्रु और पुत्र को दण्ड देता है उसका वह दण्ड इस लोक की भी रक्षा करता है, क्योंकि उससे अपराध रुकते हैं और परलोक की भी रक्षा होती है। वह न्यायपूर्वक व्रतों में सावधानी रखते हुए अपनी पदवी और शक्ति के अनुसार शासन करता है। आचार्य जिनसेन महापुराण पर्व चौबीस (२४) में स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं -
ततः सम्यक्त्वशुद्धिं च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । - निष्कलां भरतो भेजे परमानन्दमुद्वहन् ।।१६३ ।।
स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाम्।
व्रतशीलावलिं मुक्तेः कण्ठिकामिव निर्मलाम् ।।१६५ ।। ____अर्थ— 'भगवान् का उपदेश सुनने के बाद परमानन्द का अनुभव करते हुए भरत ने सम्पूर्ण सम्यक्त्व विशुद्धि और व्रतशुद्धि को समझा। तथा भगवान् की आराधना करके सम्यग्दर्शनपूर्वक व्रतशीलावली को जो मुक्ति की निर्मल कण्ठी के समान है, धारण किया।
शान्तिनाथ पुराण में असग महाकवि ने अपराजित राजा के श्रावक धर्म स्वीकार करने का कथन किया है -