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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (१९४) जाततत्त्वरुचिः साक्षात्तत्राणुव्रतपञ्चकम् । भव्यतानुगृहीतत्वादगृहीदपराजितः ।। आचार्य वसुनन्दि अर्थ - भव्यत्वभाव के अनुग्रह से तत्त्वों में रूचि होने पर अपराजित राजा ने पांच अणुव्रतों को स्वीकार किया । इस प्रकार और भी कई कथन पुराणों में आते हैं, जिन सभी का तात्पर्य यही है कि व्रत धारण कर शक्ति भर उसका पालन करना चाहिये । अणुव्रतानि पञ्चैच त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारियेवं द्वादशधा व्रतम् । । रत्नमा० १४ । । अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानिं चत्वारि द्वादशेति गृहि व्रते । । पद्मनं० पं०६/२४।। इस प्रकार सामान्यतया व्रतों का स्वरूप कहा है ।। २०८ ।। अहिंसाणुव्रत का लक्षण जे तसकायाजीवा पुव्वुद्दिट्ठा ण हिंसियव्वा ते ' । ए. इंदिया विणिक्कारणेण पढमं वयं थूलं । । २०९।। अन्वयार्थ - (जे) जो, (तसकाया जीवा) त्रसकाय जीव, (पुष्बुद्दिट्ठा) पहले कहे गये हैं, (ते) वे, (ण हिंसियव्वा) नहीं मारने चाहिये (और), (णिक्कारणेण) विना प्रयोजन, (एइंदिया वि) एकेन्द्रिय जीवों को भी (नहीं मारना), (पढमं) प्रथम, (थूलवयं) स्थूल व्रत है। अर्थ — जो त्रसकायजीव पहले कहे गये हैं, वे नहीं मारने चाहिए और बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवों को भी नहीं मारना प्रथम स्थूलव्रत है। व्याख्या- जहां पर जीव द्रव्य का वर्णन किया है वहां पर त्रसकायिक आदि जीवों का भी कथन आ चुका है। वहां से सम्पूर्ण कथन को जानकर जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए। बिना प्रयोजन के एकेन्द्रिय जीवों को भी कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। यह पांच अणुव्रतों में प्रथम स्थूल व्रत अर्थात् अहिंसाणुव्रत है। कुछ प्रमुख आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट परिभाषायें प्रस्तुत हैं संकल्पात् कृतकारित मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान्। न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः । । रत्न० श्रा०५३ ।। तसघादं जो ण करदि मणवयकायेहि णेव कारयदि । कुव्वंतं पि ण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स । । कार्त्तिकेयानु०३३८ ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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