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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९५) आचार्य वसुनन्दि धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तम्। स्थावर हिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ।। पुरुषार्थसि०७५ ।। शान्ताद्यष्टकषायस्य संकल्पैर्नवभिस्त्रसान्। अहिंसतो दयार्द्रस्य स्यादहिंसेत्यणुव्रतम् ।।सा० ध०४/७।। इन सभी श्लोकों का भाव स्पष्ट ही है। आगे आचार्य हेमचन्द्र का एक श्लोक इस विषय की पुष्टि में प्रस्तुत है - पङ्गु कुष्ठिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूणां हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ।।योगशास्त्र, २/१९/५।। ' अर्थ– हिंसा का फल पंगुपना, कुष्ठिपना, का नापना आदि देखकर बुद्धिमान् को निरपराध त्रस जन्तुओं की संकल्पी हिंसा छोड़ देनी चाहिए। आचार्य उमास्वामी कहते हैं - यत्कषायोदयात्प्राणि प्राणानां व्यपरोपणम् । न क्वापितदहिंसाख्य व्रत विश्व हितंकरम् ।।उमा० श्रा०,३३२।। अर्थ- कषाय के निमित्त से प्राणियों के प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा कहलाती है। इस प्रकार कषाय के निमित्त से किसी काल या किसी क्षेत्र में प्राणों का व्यपरोपण (वियोग) नहीं करना अहिंसां व्रत कहलाता है। यह अहिंसा व्रत समस्त लोक का हित करने वाला है। . .. आचार्य उमास्वामी का हिंसा के फल को दर्शाने वाला श्लोक हेमचन्द्र के श्लोक जैसा है, देखिये - विलोक्यानिष्टकुष्टित्वपङ्गुत्वादि फलं सुधीः । . सानां न क्वचित्कुर्यात् मनसापि हि हिंसनम् ।।उमा० श्रा०३३३।। त्रस जीवों की रक्षा के साथ-साथ एकेन्द्रियों की यथाशक्य रक्षा करने पर प्राय: सभी आचार्यों ने जोर दिया है। देखिये कुछ आचार्यों के मन्तव्य - भूपय:पवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम्। यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत् कुर्यादजन्तुजित् । ।सोमदेव., उपास० ३४७ स्तोकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।। पु.सि. ७७।। यन्मुक्त्यङ्गमहिंसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः । एकाक्षवधमप्युज्झेद्यः स्यानावयंभोगकृत।।११।। सा०५०
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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