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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५३) आचार्य वसुनन्दि मानसिक दुःख भी बढ़ जाता है, तब वह दोनों प्रकार के अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों से दग्ध होकर और क्रोध में आकर कहता हैं- यदि मैंने पूर्व भव में मद के वश में होकर जुआ खेला है तो तुम लोगों का क्या अपराध किया? जो तुम सब मुझे जबर्दस्ती पकड़ कर मारते हो।
नवीन नारकी के इस प्रकार कहने पर अति रुष्ट हुए अन्य नारकी उसे पकड़कर खूब तेज जलती हुई अग्नि के कुण्ड में फेंक देते हैं, जहाँ पर वह आग से पूर्णरूपेण जल जाता है, उसका अंग-अंग जलने लगता है। भयङ्कर दुःख से पीड़ित होने से वह उस कुण्ड से निकलता है। उसे निकलता देख वे नारकी झसरों (एक शस्त्र विशेष) और भालों से छेदकर पुन: उसी अग्निकुण्ड में डाल देते हैं।
इस प्रकार के भयङ्कर दुःखों से दुःखित हो वह रोते हुए कहता है- हाय! मुझे छोड़ दो, मैं ऐसा पाप फिर कभी नहीं करूँगा। इस प्रकार कहता हुआ तथा अंगुलिओं को दाँतों से दबाता हुआ करुण-प्रलापपूर्वक पुन: रोने लगता है। ___ तो भी वे पापी नारकी उसे नहीं छोड़ते हैं। बार-बार और बहुत मात्रा में उसे दुःख देते रहते हैं। देखो! यह जीव जो पाप खेल-खेल में अथवा कौतुहल मात्र से करता है, उस पाप के फल को वह उपर्युक्त दुःखों से भोगता है। . वास्तव में बुद्धिमानी तो इसी में है कि कभी भी किसी भी प्रकार का पाप कषायों के वश, खेल-खेल में अथवा मनोरंजन के लिए नहीं करना चाहिए। सभी का प्रयास यही रहना चाहिए कि मुझसे किसी भी स्थिति में कोई भी पाप न हो जावे; क्योंकि पाप तो व्यक्ति हँस-हँस कर बांध लेता है; किन्तु जब उन पापों का फल उदय में आता है तब उसे सिर्फ रोना ही हाथ लगता है। रोने पर उस पाप का फल कम नहीं होता है। उसे पूरा ही भोगना पड़ता है। अत: किसी भी प्रकार के पाप करने से बचने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए।। १४३-१५०।।
शिलाओं से प्राप्त दुःख तत्तो पलाइऊणं कह वि य माएण' दलसम्बंगो। गिरिकंदरम्मि सहसा पविसइ सरण ति मण्णंतो।।१५१।। तत्थवि पडंति उवरि सिलाउ तो ताहिंचुण्णिओ संतो। गलमाणरुधिरधारो रडिऊण खणं तओ णीइ ।।१५२।।
इ. तेहि.
१. झ. वयमाएण, ब. वप्रमाएण. २. ३. म. णियइ.