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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५२)
आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ (जोव्यण मएणमत्तो) यौवन के मद से मत्त होकर (और), (लोहकसाएण) लोभकषाय से, (रंजिओ) अनुरंजित होकर, (पुव्वं) पूर्व में, (ज) जो, (गुरुवयणं) गुरुवचन का, (लंघित्ता) उल्लंघन कर, (जूयं रमिओ आसि) जुआ खेला है। (अब), (तस्सफलमुदयमागय) उस पाप का फल उदय आया है, (रुवणेण अलं हि) रोने से बस कर, (रे दुठ) रे दुष्ट, (विसह) (उसे) सहन कर, (रोवंतो वि) रोने से भी, (पुवकयकम्मस्स) पूर्वकृत कर्म से, (कयावि) कभी भी, (ण छुट्टसि) नहीं छूटेगा, (एवं सोऊण) इस प्रकार के वचन सुनकर, (तओ) उसके, (माणसदुक्खं वि) मानसिक दुःख भी, (समुप्पण्ण) उत्पन्न होता है, (तो से) तब वह, (दुविह दुक्खदडो) दोनों प्रकार के दुःख से दग्ध होकर, (रोसट्ठो) रोष में आकर, (इमं भणइ) इस प्रकार कहता है। (जइ वा मए पुष्यम्मि-भवे) यदि मैंने पूर्व भव में, (मदवसेण) मद के वश होकर, (जूयं रमियं) जुआ खेला है, (तुम्हं को अवराहो कओ) तुम्हारा क्या अपराध किया है, (जेण) जिस कारण से, (मं) मुझे, (बला) : जबर्दस्ती, (हणइ) मारते हो। (एवं भणिए) ऐसा कहने पर, (रुद्वेहिं) रुष्ट हुए, (नारकी उसे), (चित्तूण) पकड़कर, (सुट्ट) खूब, (पज्जलयम्मि) प्रज्वलित, (अग्गिकुंडम्मि) अग्निकुण्ड में, (णिहित्तो) डाल देते हैं; (सो) वह, (अंगमंगेसु) अंग-अंग में, (उज्झइ.) जल जाता है। (तत्तो णिस्सरमाणं) वहाँ से निकलते हुए, (दलूण) देखकर, (ज्झसरेहिं) झसरों से, (अहव) अथवा, (कुंतेहिं) भालों से, (पिल्लेऊण) छेद कर, (रडत) चिल्लाते हुए, (अदयाए) निर्दयतापूर्वक, (तत्थेव) उसी कुण्ड में, (छुहंति) डाल देते हैं। (हा मं मुयइ) हाय, मुझे छोड़ दो, (मा पहरह) प्रहार मत करो (मैं), (एरिसं पावं) ऐसा पाप, (पुणो वि ण करेमि) फिर कभी नहीं करूँगा, (दंतेहिं) दाँतों से, (अंगुलीओ धरेइ) अंगुलियां दबाता है (और), (करुणं) करुण प्रलाप-पूर्वक, (पुणो) पुन:, (रुवई) रोता है। (तह वि पावा) तो भी वे पापी, (ण मुयंति) (उसे) नहीं छोड़ते, (पेच्छह) देखो, (ज) जो (पाप), (जीवो) जीव, (लीलाए कुणइ) लीला से करता है, (तं पावं) उस पाप को, (बिलवंतो) विलाप करते हुए, (एयहिं) इन इन दुःखों से, (णित्थरइ) भोगता है।
___भावार्थ- पुराने नारकी उस नवीन नारकी से रुष्ट होकर कहते है, रे! दुराचारी, अब क्यों रोता और चिल्लाता है। ख्यालकर तूने पूर्वभव में यौवन से मदमत्त होकर लोभ कषाय से अनुरंजित होकर, गुरुओं की आज्ञा का उल्लंघन कर जुआ खेला है। अब उस पाप का ही फल उदय में आया है, इसलिए रोना-धोना बन्द कर और उसे सहन कर। मूर्ख तू सोचता है कि रोने से मैं दुःख पाने से बच जाऊगा। पर ध्यान रख! रोने से पूर्व कृत कर्म के फल से कभी भी छुटकारा नहीं मिलता उन्हें भोगना ही पड़ता है।
जब इस प्रकार के दुर्वचन सुनकर वह नारकी और भी उद्वेलित हो जाता है तथा