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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
(३१७)
आचार्य वसुनन्दि
मंगल कामना वर को वर वर न वरो, अवर वरे कई बार। सुधी बनो धीवर नहीं, मिटने बार-अबार ।।१।। नंदन बन वंदन करो, तज दो मन से राग। दीप देहरी के बनो, चूल्हे की न आग।।२।। श्रावक श्री को जा रहे, श्रेय कहे धीवान । वरण करें चारित्र को, शनैः शनैः सुज्ञान।।३।। कारण आतम ज्ञान है, देह जीव में भेद । चातक बन पातक बना यही रहा बस खेद।।४।। रत्न चुनो सम्भाल कर, रक्षा करो सम्भाल। टीन के डिब्बे में नहीं, टिकता ऐसा माल ।।५।। कान लगाकर सुन चलो, एक और नई बात । काका से भी न कहो, माल रखे की बात ।।६।। रमण करो निज रूप में, परखों खुद को आप। मुक्ति लायक हो सका, क्या खुद में खुद माप ।।७।। निलय बना निज देह को, प्रभु बना निज आत्म । सुरत रहो निज भाव में, फिर क्या आत्मानात्म ।।८।। नील गगन में शोभता, जैसे पूनम चांद। लगन लगा जिन में रहो, जैसे अनहद नांद ।।९।। सार-समय को गह लहे, निज में निज का सार । गगन गंध में सार न, सारे रहे असार ।।१०।। रस रूपादिक हैं नहीं, मुझमें केवल ज्ञान । जीव रहा था जीव हूँ, जीव बने भगवान ।।११।।
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