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________________ (५२) है। शाकाहार में यह सब नहीं होता। मांस से भी कहीं अधिक उसमें प्रोटीन और विटामिन्स होते हैं। और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शाकाहार मानवता की मार्मिक भूमि पर खड़ा है जबकि मांसाहार के पीछे निष्ठुर दानवता खड़ी रहती है। आज कारखानों ने पर्यावरण को प्रदषित कर डाला है। क्ररता का ऐसा घिनौना रूप वहाँ दिखाई देता है कि कोई भी भला आदमी वहाँ खड़ा भी नहीं रह सकता। बलि-वेदी पर चढ़ाये जाने वाले पशुओं का संहार भी धर्म के परदे के पीछे घनघोर हिंसा है। आधुनिक प्रोडक्ट्स शाकाहारिता के लिए एक भयङ्कर चैलेंज है। नई पीढ़ी में यह जागरण आ रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। __ आधनिक मानस भी मांसाहार को क्रोध असहिष्णुता निराशावादिता, स्नायु दर्बलता, तामसिकता आदि जैसे दर्गणों का जनक मानता है आध्यात्मिक और आर्थिक दृष्टि से भी मांसाहार पूर्णतः अनुचित और अनुपयुक्त है। अण्डा भी मांसाहार में ही गिना गया हैं उमास्वामी श्रावकाचार, श्रावकाचारसारोद्धार (३.२७-३१). पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय (६६-६८), उपासकाध्ययन (२६४-६५), वसुनन्दि श्रावक (८५-८७) लाटी संहिता (१.५५) आदि श्रावकाचार ग्रन्थों में इन सारे तथ्यों को प्रगट किया गया है। मांस भक्षण दानवताका प्रतीक हैं, इसलिए जैनधर्म पूर्णत: शाकाहार का पक्षधर है। जैनाचार्यों ने मांसभक्षण की हानियों का विस्तार से वर्णन किया है और शाकाहार का प्रचार किया है। शाकाहार की सूची जैन साहित्य में मिलती है। यहाँ तक कि अभक्ष्य वस्तुओं को मांस भक्षण के अन्तर्गत रख दिया गया है ताकि श्रावक निषिद्ध वस्तुओं का भक्षण न करें। मांस की निरुक्ति इस प्रकार की गई है- मासं भक्षयति प्रेत्य यस्य मांसमिहादम्यहम् अर्थात् जिसका मांस मैं आज खा रहा हूँ, वह मुझे परलोक में खायेगा (उमा० श्राव० २६८)। वहाँ कहा गया है कि हरिण, जंगली जीवों में मांस उत्पन्न होता है और स्थावर जीवों में फल उत्पन्न होता है। मांस जीवन का शरीर है पर उड़द स्थावरकायिक है। एक अभक्ष्य है, दूसरा भक्ष्य है। इसी तरह दूध और मांस को भी एक नहीं माना जाना चाहिए। विषवृक्ष के पत्ते आयु बढ़ाते हैं और उसका जड़ भाग मृत्यु का कारण होता है। गाय के दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र इन पंच गव्यों को इष्टग्राह्य माना है पर गो मांस भक्षण को अग्राह्य और पाप माना जाता है (उमा० श्रा० २७५-२८३)। लाटी संहिता में इस पर और भी विस्तार से कहा गया है। वहाँ कहा गया है कि अन्न, औषधियाँ, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों को गाढ़े वस्त्र से छानकर लेना चाहिए (१-२३)। शोधा हुआ पदार्थ मर्यादा से बाहर न हो (१-३२)।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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