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________________ (५३) रोटी, दाल आदि पदार्थ जो केवल अग्नि पर पकाये गये हों और पूड़ी-कचौड़ी आदि पदार्थ को घी में पकाये गये हों अथवा पराठे आदि पदार्थ जो घी और अग्नि दोनों के संयोग से पकाये गये हों, इन सभी पदार्थों के बासे रूप को नहीं खाना चाहिए क्योंकि उनमें सूक्ष्म और संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसी तरह मैथी, पालक, चना की शाक, बथुआ, चौराई आदि पत्ते वाली शाक भी अपक्वावस्था में नहीं खानी चाहिए। उनमें त्रस जीव रहते हैं। पान भी इसी प्रसंग में वर्जित माना है। रात्रि भोजन का त्याग भी इसी दृष्टि से आवश्यक माना है। इसी प्रकार जिसका रूप-रस बिगड़ जाता है चलित हो जाता है, गन्ध बदल जाती है, स्पर्श बदल जाता है। ऐसे चलित पदार्थ भी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि त्रस जीव उनमें पैदा हो जाते हैं। दूध, दही, छाछ आदि को भी मर्यादा के भीतर ही लिया जाना चाहिए (लाटी संहिता, १.३३-५७)। जैनाचार्यों ने यह सब वर्णन मांस भक्षण निषेध के सन्दर्भ में किया है। इसका तात्पर्य है कि जैनधर्म में शाकाहार को आहार शुद्धि के साथ जोड़ा गया है। आहार शुद्धि से ही सात्विक संस्कारों का निर्माण होता हैं जो मांसाहार से सम्भव नहीं है। मांसाहार से क्रूरता, हिंसक वृत्ति और दुर्विचार आते हैं। अलसर, कैंसर, हृदय विकार, उच्चरक्तचाप, मस्कुल डिस्ट्राफी आदि जैसे भयंकर रोगों का जन्म होता है। इसके विपरीत शाकाहार एक प्राकृतिक आहार है, अधिक पौष्टिक और गुणकारी है, सस्ता और सरल है, चित्त को शान्त बनाये रखता है और पर्यावरण को सुरक्षित रखता है। जैनधर्म ने शाकाहार को तो प्रश्रय दिया ही है, उसमें भी भक्ष्य-अभक्ष्य के आधार पर चिन्तन किया हैं। श्रावक से आशा की जाती है कि वह कन्दमूल, बहुबीजक फल आदि न खाये तथा मर्यादित भोजन करे। उमास्वामी श्रावकाचार ने अभक्ष्य पदार्थों की एक लम्बी सूची दी हैं तदनुसार अज्ञात पुरुषों के पात्रों में से भोजन करना, दुर्गन्धित छाछ लेना किसलय गीले पात्र में रखी वस्तुओं को खाना, पुष्प खाना, दो दिन बासी छांछ और दही खाना, कमलनाल,काजी, बिना छना पानी आदि ग्रहण, करना उत्तम श्रावक के लक्षण नहीं हैं। जैन साहित्य के इन उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में कन्दमूल पंचोदुम्बरफल आदि अभक्ष्य माने गये हैं। कन्दमूल वनस्पतियाँ सीधी मिट्टी के अन्दर रहती है जहाँ नमी रहने और सूर्य की किरणों के न पहुंचने के कारण सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाती हैं उदुम्बर फलों में भी असंख्य कीड़े रहते हैं। उनका भक्षण करने से उन जीवों की मृत्यु हो जाती है। ये जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी साधारण आँखों से वे दिखाई नहीं देते। माइक्रोस्कोप से दिखाई दे जाते हैं। ये बैक्ट्रिया वाइरस जीव स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होते हैं। इसलिए जैनधर्म ने इनको अभक्ष्य माना है। भक्ष्य वनस्पतियाँ वे हैं जो एक ही पुष्प से विकसित होती हैं। अभक्ष्य वनस्पतियों
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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