SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९) आचार्य वसुनन्दि हो सकते हैं। आत्मज्ञान से रहित समस्त ज्ञान भौतिक ज्ञान होने से केवल शव सम्बन्धी ज्ञान है एवं आत्मा का ज्ञान शिव सम्बन्धी ज्ञान है। जब तक जीव स्वयं को नहीं जानेगा, केवल पर को ही जानता रहेगा उसके बराबर अज्ञानी कौन हो सकता है? इसलिये कहा गया है “आत्मज्ञानं सर्वज्ञाने प्रतिष्ठितम्" आत्म ज्ञान सर्व ज्ञान में श्रेष्ठ है। जीव एक द्रव्य होने से उसकी कभी नवीन रूप से सृष्टि नहीं हुई। इस सिद्धान्त के अनुसार डारविन का जीव विकासवाद सिद्धान्त खण्डित हो जाता है, क्योंकि यदि जीवरूप, चैतन्य शक्ति रूप द्रव्य पहले नहीं था तब रासायनिक-भौतिक परिवर्तन के माध्यम से चैतन्य शक्तियुक्त जीव द्रव्य कैसे उत्पन्न हो सकता है और दूसरी बात, जीव परिवर्तित होते-होते बानर समाज रूप में परिवर्तित हुए और बानर समाज परिवर्तित होते-होते मानव समाज रूप हुआ तब अभी उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार बानरादि समाज नहीं होना चाहिए था, किन्तु वह समाज उपलब्ध है इसलिये डारविन का सिद्धान्त पूर्ण सत्य सिद्धान्त नहीं है। इस गाथा का सूक्ष्म अध्ययन करने से यह तथ्य अनुभव में आता है कि जो “असरीरा" पद दिया है वह मुख्य रूप से सिद्ध परमेष्ठियों को ग्रहण करता है, क्योंकि वे सब प्रकार के शरीरों से रहित हैं, किन्तु जो “णंतचउट्ठयण्णिया" पद है वह मुख्य रूप से अरहन्तों के ग्रहण के लिये है। चूंकि यह सत्य है कि यह गुण सिद्ध परमात्मा में भी पाये जाते हैं पर इन गुणों का लक्षण रूप में उल्लेख अरहन्त परमात्माओं पर ही पूर्णरूपेण घटित होता है, क्योंकि ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य क्रमश: एक-एक कर्मों के एक साथ नष्ट हो जाने पर प्रादुर्भूत होते हैं। संसारापेक्षया जीवन्मुक्त होने से अरहन्त भी सिद्ध तुल्य ही हैं। जन्म, मरण, आदिक सिद्ध के भी नहीं है और अरहंत के भी नहीं हैं। अत: इस गाथा में सिद्ध जीवों में अरहन्तों को भी लिया गया है। गुणस्थान एवं मार्गणा आदि की अपेक्षा जीवन्मुक्त होते हुए भी अरहन्त भगवान् संसारी जीवों की श्रेणी में गिने जाते हैं।।११।। संसारी जीवों के दो भेद संसारत्था दुविहा थावर-तस- भेयओ' मुणेयव्या। पंचविह थावरा-खिदि-जलग्गि-वाऊ-वणप्फइणो।।१२।। अन्वयार्थ - (थावर-तसभेयओ) स्थावर (और) त्रस के भेद से, १. ध. भेददो.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy