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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८) आचार्य वसुनन्दि) अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से जो संयुक्त हैं, तथा जन्म-मरण, रोग-मृत्यु आदिक से रहित हैं वे सिद्ध हैं। व्याख्या- चेतना, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य, अवगाहनत्व, निर्ममत्व, निरापेक्ष भाव जीवों के उत्तम धर्म हैं। उपरोक्त छहों द्रव्यों में जीव द्रव्य सबसे उत्तम द्रव्य है, क्योंकि जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि उत्तम-उत्तम गुण पाये जाते हैं। विश्व में अनन्तानन्त स्वतन्त्र-स्वतन्त्र जीव है। उनमें से अनन्त जीव, स्वतन्त्र अनन्त सुख को भोग करने . वाले मुक्त जीव हैं और अनन्त जीव कर्म बन्धन में पड़कर परतन्त्र होकर अनन्त दुःख को सहने वाले भी हैं। स्वयं जीव ही सुख अथवा मुक्तावस्था, दुःख अथवा संसारावस्था. दोनों का निर्माण करता है। कहा भी है आत्मा स्वयं का सुख-दुःख का कर्ता है। सुपथगामी आत्मा स्वयं का मित्र है एवं कुपथगामी आत्मा स्वयं का शत्रु है। स्वभावत: प्रत्येक आत्मा द्रव्य दृष्टि से समान है, प्रत्येक आत्मा में अनन्त सुख आदि गुण सद्भाव होते हुए भी स्वर्जित कर्म के कारण वह अनन्त सुखादि तत्त्व वर्तमान में तिरोहित हैं, किन्तु नाश नहीं हुए हैं। जब प्रबुद्ध आत्मा स्वपुरुषार्थ के माध्यम से जीव के स्वभावभूत आगे वर्णित अहिंसा उत्तम क्षमादि धर्म का पालन करेगा तब पूर्व संचित कर्म नष्ट होकर तिरोहित ज्ञान-सुखादि गुण प्रगट हो जायेंगे। उस कर्मरहित अवस्था जीव को ही परमात्मा कहते हैं। अर्थात् पतित आत्मा ही धर्म साधन के माध्यम से पावन होकर परमात्मा बन जाता है। जिस प्रकार खान से निकला हुआ अशुद्ध स्वर्ण १६ ताप अग्नि से शुद्ध स्वर्ण हो जाता है उसी प्रकार कर्म कलंक से दूषित संसारी आत्मा भी धर्मरूप अग्नि से शुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है। . समस्त कर्म से मुक्त होने के बाद मुक्त जीव एक समय में सिद्ध शिला में विराजमान हो जाते हैं और वहाँ पर अनन्त सुखादि गुणों को भोगते हुए वहाँ ही अनन्त काल तक स्थिर रहते हैं। संसारावस्था का निर्माण करने वाले कर्म के अभाव के कारण पुनः संसार में नहीं आते हैं। वहाँ विश्व को देखते जानते हए रहते हैं, परन्तु किसी के भी कर्ता,धर्ता, हर्ता नहीं बनते हैं, क्योंकि वे राग-द्वेष से रहित हैं। जीव के अस्तित्व को समस्त आस्तिक दर्शन स्वीकार करते हैं, परन्तु वैज्ञानिक लोग अभी तक उसे पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार नहीं कर पाये हैं। वस्तुत: जीव अमूर्तिक. होने के कारण इन्द्रियगम्य नहीं है और भौतिक साधन से भी उसका शोध और बोध नहीं हो सकता है। उसको जानने के लिये जिन्होंने स्वयं आत्मा का साक्षात्कार किया है उन केवल ज्ञानी के आत्मा सम्बन्धी उपदेश एवं अन्तर दृष्टि, अनुभव आदि कार्यकारी
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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