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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०) आचार्य वसुनन्दि (संसारत्या) संसारी जीव, (दुविहा) दो प्रकार के, (मुणेयव्या) जानना चाहिये। (इनमें), (थावरा) स्थावर जीव, (पंचविह) पाँच प्रकार के हैं, (खिदि लतग्गि वाऊ वणप्फइणो) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से।।१२।। __अर्थ- स्थावर और त्रस के भेद से संसारी जीव दो प्रकार के जानना चाहिए। इनमें स्थावर जीव पाँच प्रकार के हैं- पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। __व्याख्या- स्थावर नाम कर्म के उदय से होने वाली जीवों की अवस्था विशेष को स्थावर कहते हैं अथवा एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहते हैं। संसारी जीव मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं – स्थावर और त्रस। त्रस नामकर्म के उदय से जीवों की जो अवस्था होती है, वह त्रस कहलाते हैं अथवा दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को त्रस कहते हैं। स्थावर जीवों के पांच भेद हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायकायिक और वनस्पतिकायिक। यह सभी पृथ्वी आदिक स्थावर नामकर्म के उदय से होते हैं। जैसे- पृथ्वी कायिक नाम कर्म के उदय से होने वाली जीव की अवस्था विशेष को पृथ्वीकायिक कहते हैं। इसी प्रकार अन्य को भी जानना चाहिये। इनमें से प्रत्येक के भी चार-चार भेद होते हैं। जैसे- पृथ्वी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव। इनमें से जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गणवाली है, वह पृथिवी है। पृथ्वीकायिक जीव द्वारा जो छोड़ा गया शरीर है वह पृथिवीकाय है। जिस जीव के पृथिवी रूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं। कार्माण काययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप से ग्रहण नहीं किया तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है। इसी प्रकार जल आदिक के भी चार-चार भेद कर लेने चाहिये। यह सभी स्थावर एकेन्द्रिय ही होते हैं तथा इनके स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, उच्छ्वास-निःश्वास और आयु ये चार प्राण होते हैं। पेड़-पौधे, घास-चारा (बड़ी घास), फल-फूल, जल, अग्नि, वायु (हवा) तथा पृथ्वी आदि ये सभी जीव हैं और इनके आश्रित भी जीव रहते हैं। कुछ वर्षों पूर्व भारत के एक वैज्ञानिक “जगदीशचन्द्र बसु” ने प्रायोगिक रूप से वृक्ष में जीव सिद्ध किया है। अब तो कई वैज्ञानिक यहाँ तक मानने लगे है कि पेड़-पौधों में मनुष्य से भी अधिक संवेदनशीलता पाई जाती है। इसी प्रकार जल-पृथ्वी आदि में भी जीवों की सिद्धि की जा रही है। त्रस जीवों के सम्बन्ध में विशेष कथन आगे किया जायेगा।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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